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Antykarma Shraddha Prakash (अन्त्यकर्म-श्राद्धप्रकाश)

180.00

Author Pt. Sri Joshan Ramji Pandey
Publisher Gita Press, Gorakhapur
Language Sanskrit & Hindi
Edition 32nd edition
ISBN -
Pages 424
Cover Hard Cover
Size 19 x 2 x 27 (l x w x h)
Weight
Item Code GP0069
Other Code - 1593

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Description

अन्त्यकर्म-श्राद्धप्रकाश (Antykarma Shraddha Prakash) पितरों के उद्देश्य से विधि पूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं-‘श्रद्धया पितृन् उद्दिश्य विधिना क्रियते यत्कर्म तत् श्राद्धम्।’ श्रद्धा से ही श्राद्ध शब्द को निष्पत्ति होती है- ‘श्रद्धार्थमिदं श्राद्धम्’, ‘श्रद्धया कृतं सम्पादितमिदम्’, ‘श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छ्राद्धम्’ तथा ‘श्रद्धया इदं श्राद्धम्’ । अर्थात् अपने मृत पितृगणके उद्देश्यसे श्रद्धापूर्वक किये जानेवाले कर्मविशेषको श्राद्ध शब्दके नामसे जाना जाता है। इसे ही पितृयज्ञ भी कहते हैं, जिसका वर्णन मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों, पुराणों तथा वीरमित्रोदय, श्राद्धकल्पलता, श्राद्धतत्त्व, पितृदयिता आदि अनेक ग्रन्थोंमें प्राप्त होता है। महर्षि पराशरके अनुसार – ‘देश, काल तथा पात्रमें हविष्यादि विधिद्वारा जो कर्म तिल (यव) और दर्भ (कुश) तथा मन्त्रोंसे युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया जाय, वही श्राद्ध है।’

महर्षि बृहस्पति तथा श्राद्ध तत्त्व में वर्णित महर्षि पुलस्त्य के वचन के अनुसार- ‘जिस कर्म विशेष में दुग्ध, घृत और मधु से युक्त सुसंस्कृत (अच्छी प्रकार से पकाये हुए) उत्तम व्यंजन को श्रद्धापूर्वक पितृगणके उद्देश्य से ब्राह्मणादि को प्रदान किया जाय, उसे श्राद्ध कहते हैं।’ इसी प्रकार ब्रह्मपुराण में भी श्राद्ध का लक्षण लिखा है- ‘देश, काल और पात्र में विधिपूर्वक श्रद्धासे पितरोंके उद्देश्यसे जो ब्राह्मणको दिया जाय, उसे श्राद्ध कहते हैं।’

श्राद्ध न करने से हानि

अपने शास्त्रने श्राद्ध न करने से होने वाली जो हानि बतायी है, उसे जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अतः श्राद्ध-तत्त्व से परिचित होना तथा उसके अनुष्ठानके लिये तत्पर रहना अत्यन्त आवश्यक है। यह सर्वविदित है कि मृत व्यक्ति इस महायात्रामें अपना स्थूल शरीर भी नहीं ले जा सकता है तब पाथेय (अन्न-जल) कैसे ले जा सकता है ? उस समय उसके सगे-सम्बन्धी श्राद्धविधिसे उसे जो कुछ देते हैं, वही उसे मिलता है। शास्त्रने मरणोपरान्त पिण्ड दान की व्यवस्था की है।

सर्वप्रथम शव यात्रा के अन्तर्गत छः पिण्ड दिये जाते हैं, जिनसे भूमि के अधिष्ठातृ देवताओंकी प्रसन्नता तथा भूत-पिशाचोंद्वारा होनेवाली बाधाओंका निराकरण आदि प्रयोजन सिद्ध होते हैं। इसके साथ ही दशगात्रमें दिये जानेवाले दस पिण्डोंके द्वारा जीवको आतिवाहिक सूक्ष्म शरीरकी प्राप्ति होती है। यह मृत व्यक्तिकी महायात्राके प्रारम्भकी बात हुई। अब आगे उसे पाथेय (रास्तेके भोजन-अन्न-जल आदि) की आवश्यकता पड़ती है, जो उत्तमषोडशीमें दिये जानेवाले पिण्डदानसे उसे प्राप्त होता है। यदि सगे-सम्बन्धी, पुत्र-पौत्रादि न दें तो भूख-प्याससे उसे वहाँ बहुत दारुण दुःख होता है।

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