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Atma Puranam Set of 4 Vols. (आत्मपुराणम् 4 भाग में)

1,190.00

Author Swami Shree Divyanand Giri
Publisher Dakshinamurty Math Prakashan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 1197
ISBN -
Pages 1976
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code dmm0005
Other प्रथम भाग : ऋग्वेदोपनिषदव्याख्यारूप १-३ अध्याय , द्वितीय भाग : शुक्लयजुर्वेदोपनिषदव्याख्यारूप १-४ अध्याय , तृतीय भाग : श्वेताश्वतर-काठक-तैत्तिरीय-गर्भाद्युपनिशदव्याख्यारूप १-४ अध्याय , चतुर्थ भाग : छान्दोग्य-केन-मुण्डक-प्रश्न-नृसिंहतापनीयोपनिषदव्याख्यारूप १-७ अध्याय

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Description

आत्मपुराणम् 4 भाग में (Atma Puranam Set of 4 Vols.) प्रथम अध्याय में ऐतरेय उपनिषद् का विस्तार है। यह ऋग्वेद की उपनिषद् है। इसके आत्मषट्क पर आचार्य का भाष्य है। तदनन्तर द्वितीय अध्याय से कौषीतकी ब्राह्मण उपनिषद् को लिया है। ब्रह्मसूत्र में इसके वाक्यों को अधिकरणों का विषय भी बनाया गया है एवं भगवान् भाष्यकार आचार्य शंकर ने पौनः पुन्येन इसका उद्धरण दिया है। यद्यपि इस पर उनका भाष्य नहीं है तथापि प्रस्थानत्रयीभाष्य में कई क्लिष्ट स्थलों की व्याख्या उपलब्ध होती है। ऋग्वेद की ये दो ही श्रौतशाखान्तर्गत उपनिषदें हैं। इस प्रकार वर्त्तमान खण्ड में ऋग्वेद पूर्णतः आ गया है।

स्वामी शंकरानन्द जी विवरण प्रस्थान का ही प्रायशः अनुसरण करते हैं, परन्तु भामती प्रस्थान के उपादेय अंशों का भी ग्रहण करते हैं। मूल ग्रंथ का भाव जिस प्रक्रिया से स्पष्ट हो उसी प्रक्रिया का अनुसरण करना उनका लक्ष्य प्रतीत होता है। ग्रंथारंभ के अनेक स्थल इसीलिये एकजीववाद, दृष्टि-सृष्टि-वाद आदि से समझाये गये हैं, जो संभवतः प्रारंभ में क्लिष्ट प्रतीत होंगे। पर पाठक आगे के अध्यायों में सृष्टि-दृष्टिवाद, अनेक प्रमातृवाद आदि भी विस्तार से पायेंगे। इस प्रकार सभी वादों का उदय किस उपनिषद् का कौन सा स्थल है यह स्पष्ट हो जाता है। ग्रंथ में टीका की विशेष उपादेयता यही है कि वे सभी स्थल प्रक्रियाबद्ध ढंग से उपस्थित कर प्रक्रियाओं को ग्रंथारूढ कर दिया गया है।

विद्वान् अनुवादक ने संस्कृत से अनभिज्ञ पाठकों को उपकृत कर सभी स्थल स्पष्टता से प्रकाशित किये हैं। पृ० ४२ पर आये इन्द्रिय व देवताओं की उत्पत्ति के प्रकरण का अनुवाद देखने से यह स्पष्ट होगा। ऐसे अनेक स्थल हैं। पृ० ६१ पर श्लो० १२९ की टीका की अपेक्षा अनुवाद में असंभावना व विपरीतभावना का स्पष्टीकरण है। इस प्रकार पुराण व टीका पढ़ने वाले को भी अनुवाद उपकृत करेगा, यह निःसन्दिग्ध है। पृ० ७० पर सम्बन्ध के विषय में भी पुराण बड़ा सुस्पष्ट व समीचीन मत उपस्थापित करता है। ग्रंथकार की विशेषता है – सभी मतवादों का संक्षेप में प्रस्तुतीकरण व उनका समन्वय । यह पद्धति आचार्य शंकर ने जैसी बनाई तदनुकूल ही पुराण में है। प्रथम अध्याय के ८८७ श्लोक हैं। इसमें पूर्वभाग में आत्मषट्क से पूर्वभाग की व्याख्या है, जिस पर भगवान् भाष्यकार का भाष्य नहीं है। यह भी वैशिष्ट्य है। सर्वत्र टिप्पणियों में विद्वान् लेखक ने अद्भुत प्रकाश डालने के साथ स्थलों का उद्धरण भी दिया है जहाँ यह विषय उपलब्ध है। टिप्पणियाँ संस्कृतज्ञ मनीषियों के ही काम की होने से उनका अनुवाद उपादेय नहीं था।

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