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Bharatiya Darshan Ka Parishilan (भारतीय दर्शन का परिशीलन)

96.00

Author Dr. Ramashankar Tripathi
Publisher Bharatiya Vidya Sansthan
Language Hindi
Edition 1st Edition
ISBN 81-87415-18-5
Pages 424
Cover Paper Back
Size 14 x 3 x 21 (l x w x h)
Weight
Item Code BVS0063
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Description

भारतीय दर्शन का परिशीलन (Bharatiya Darshan Ka Parishilan) भारतीय-दर्शन मानव-मेधा का निकष है। दर्शन की सुगन्धिभरी वीथियों में अभ्रान्त भ्रमण कर तत्त्व-बिन्दुओं का सञ्चयन इस देश की प्रतिभा का विलास रहा है। कोई भी विचारशील व्यक्ति तब तक प्रतिभा का धनी नहीं माना जाता था जब तक कि दर्शन के दिव्य सिंहासन पर उसका भव्य अभिषेक न हो जाय। दर्शन-विन्ध्याटवी का पञ्चानन ही ऊँचे मञ्चासन का सुयोग्य अधिकारी होता था। चिरकाल से उलझी हुई दर्शन की गुत्थिओं को सुलझाना इस देश में वैदुष्य की पराकाष्ठा मानी जाती थी। यहाँ की विचारशील जनता ने सारस्वत अखाड़े के उसी मल्ल के गले में विजय-वैजयन्ती पहनाई है जिसने दर्शन-ज्ञान-गङ्गा में गोते लगा कर तन मन को निर्मल किया हो। प्रसिद्ध परमहंस के वंश में जन्म लेने के कारण यह स्वाभाविक है कि दर्शन की इस महिमा की ओर मन आकृष्ट हो। विधाता ने तत्त्व-जिज्ञासा को सहज सहचरी के रूप में प्रदान कर मुझे कृतार्थ किया है। छात्र-जीवन के गलियारे में भ्रमण करते समय सांख्य, योग और अद्वैत वेदान्त की भव्य बाँकी झाँकी ने बुद्धि को चमत्कृत किया, मन को मुग्ध किया और किया प्रकाश स्तम्भ का कार्य भी।

फलतः मन में अकल्प संकल्प ने जन्म लिया- जीवन में भारतीय दर्शनों का परिशीलन अवश्य प्रस्तुत करूँगा।’ भगवत्प्रेरणां ने इस सङ्कल्प को संबल प्रदान किया। वर्तमान कृति उसी पवित्र सङ्कल्प का परिणत सुमधुर सुपक्व फल है। इसे मूर्तरूप प्रदान करने में दो बातों की सतत सावधानी रक्खी गई है। एक तो यह कि तथ्यों के उपस्थापन में, सिद्धान्तों के प्रस्तुतीकरण में तत्तत् दर्शनों के आधार स्तम्भ-भूत मूल ग्रन्थों के विचारों से विचलित न हो जाऊँ, आचार्यों के सिद्धान्तों से स्लिप न कर जाऊँ और दूसरे यह कि दार्शनिक भाषा की जटिलताओं में उलझकर भ्रमित न हो जाऊँ। प्रस्तुत ग्रन्थ विद्वानों के साथ-साथ विद्यार्थियों के भी उपकार की भावना से भरा हुआ है। अतः गूढतम सिद्धान्तों के प्रतिपादन में भी सरलातिसरल चलती चमकती भाषा के प्रयोग की सतत सावधानी रक्खी गई है। पानी के सतत प्रवहमान सन्तर्पक स्वाभाविक सरल प्रवाह को सर्वदा ध्यान में रक्खा गया है। इस प्रयास में मुझे कहाँ तक सफलता का साथ मिला है ? इसका आकलन मेरा काम नहीं है। इस ग्रन्थ को प्रामाणिक बनाने के प्रयास में सरस्वती की कृपा का कहाँ तक पात्र बन सका हूँ, यह निर्मत्सर विद्वान् विवेचकों के विवेक का विषय है। इस पर मुझे कुछ नहीं कहना है। मत्सर और ईर्ष्या की युगल भुजङ्गजोड़ी ने जिसके हृदय को हँस लिया है उनके विषय में तो मुझे कुछ कहना ही नहीं है। ऐसे व्यक्तियों को दूर से हाथ जोड़ लेना मेरा अपना स्वाभाव है।

इस ग्रन्थ को तैयार करने में अब तक के प्रकाशित प्रसिद्ध दार्शनिक कृतियों का गहन अध्ययन-चिन्तन किया गया है, उनसे सैद्धान्तिक सामग्री संकलित की गई है, उनका भाषागत सौष्ठव संगृहीत किया गया है तथा ग्रन्थ की शरीर-रचना भी उन्हीं के तर्ज पर की गई है। इस प्रकार के ग्रन्थों में आदणीय दत्त एवं चटर्जी का ‘भारतीय दर्शन’ प्रथम स्थानीय है। आचार्य बलदेव उपाध्याय, प्रो० सङ्गमलाल पाण्डेय, प्रो० हिरियन्ना, उद्भट विद्वान् आचार्य विश्वेश्वर, आचार्य बदरीनाथ सुकुल और डॉ० सिन्हा के ग्रन्थों से भी भरपूर सहायता ली गई है। और भी बहुत-से विद्वानों और उनकी रचनाओं से मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है। ये सभी हमारे उत्तमर्ण हैं। मैं इन सबका हृदय से आभारी हूँ। भारतीय दर्शन पर लेखनी तो बहुतों ने दौड़ाई है। किन्तु मैं यह बात बेहिचक और बेझिझक कह डालना चाहता हूँ कि जिनके पास परम्परागत संस्कृत भाषा का सबल सम्बल संगृहीत नहीं है उनकी कृतियाँ ऊटक-नाटक बन कर रह गई हैं। उन्हें गरीब की चूती-झरती टूटी मड़ई से अधिक महत्त्व नहीं दिया जा सकता। भारतीय दर्शन की निबिड ग्रन्थियों को खोलने में, काटने में वे ही सबल हैं, समर्थ है, जिनकी मुट्ठी में प्रबल संस्कृत की तीक्ष्ण धारवाली तरवार है।

इस संस्करण को पूर्ण करने में वर्षों का समय, अध्यवसाय एवं चिन्तन लगा है। जब-तब कठिनाइयों के अम्बार ने कार्यावरोध का प्रयास किया है। ग्रन्थ-समाप्ति के अन्तिमं दिनों में तो मानो मौत ने ही गोद में उठा लेने का प्रयास किया। पंजाब में लुधियाना के पास कार दुर्घटना की बेला में कराल काल ने आँखों के समक्ष ताण्डव प्रारम्भ कर दिया था। किन्तु कृष्ण-कृपा का प्रबल विपुल सम्बल पाकर साहस ने सबको धता बताते हुए कार्य को पूर्णता के द्वार तक पहुँचा ही दिया। धन्य है कृष्ण-कृपा !

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