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Shat Chakra Nirupanam (षट्चक्रनिरूपणम)

80.00

Author Ajay Kumar Uttam
Publisher Bharatiya Vidya Sanskthan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 1st edition, 2009
ISBN 81-87415-83-5
Pages 130
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 21 (l x w x h)
Weight
Item Code BVS0058
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Description

षट्चक्रनिरूपणम (Shat Chakra Nirupanam) भारत की प्राचीन विद्याओं में से योग भी एक अत्यन्त ही प्राचीन एवं अत्यधिक उपयोगी विद्या है। यह विद्या मानव के लिए अत्यन्त ही उपयोगी एवं मोक्ष की प्राप्ति में सहायक है। प्राचीन काल से आज तक इसमें अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं। इन ग्रन्थों में एक ग्रन्थ श्रीतत्त्वचिन्तामणि भी है। इस ग्रन्थ के छठे अध्याय में छः यौगिक षट्चक्रों का वर्णन किया गया है। ‘षट्चक्रनिरूपणम्’ नाम के इस अध्याय को अन्य से पृथक् प्रकाशित होने का गौरव प्राप्त है । इस षट्चक्रनिरूपणम् पर विद्वानों ने समय-समय पर टीकायें लिखी हैं। योगतन्त्र का विषय कठिन होने के कारण इस ग्रन्थ पर टीकायें कम ही मिलती है। कुछ विद्वानों ने साधकों के हित के लिए संस्कृत में कुछ टीकायें की है। इन टीकाओं का उद्देश्य यह रहा है कि साधक को ग्रन्थ में वर्णित ज्ञान स्पष्ट रूप से प्राप्त हो सके । प्रस्तुत ग्रन्थ की कुछ टीकायें इस प्रकार हैं-

(१) सन् १८५८ में श्रीकालीचरण की श्लोकार्थपरिष्कारिणी नामक संस्कृत टीका को आनन्दचन्द्र वेदान्त वागीश ने सम्पादित करके कलकत्ता के सुचारु प्रेस से प्रकाशित करवाया ।

(२) श्रीकालीदास भट्टाचार्य ने ई० सन् १८६९ में श्रीकालीचरण की टीका तथा श्रीरमावल्लभ की संस्कृत टीका को सम्पादित करके प्रकाशित कराया।

(३) श्री आर्थर एवलान ने श्री विश्वनाथ की षट्चक्रविवृति नामक संस्कृत टीका को सम्पादित कर सन् १९४१ ई० में प्रकाशित किया ।

(४) श्री आर्थर एवलान ने श्री शङ्कर की षट्चक्रभेदटिप्पणी नामक संस्कृत टीका को सम्पादित कर सन् १९४१ ई० में प्रकाशित किया ।

प्रस्तुत ग्रन्थ में क्रम संख्या १, ३ व ४ की टीकाओं को सम्मिलित किया गया है; साथ में योगिनी हिन्दी व्याख्या भी दी गयी है।

जैसा कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है कि “षट्चक्रनिरूपणम्” श्रीतत्त्वचिन्तामणि नामक ग्रन्थ का छठा अध्याय है। इस ग्रन्थ के रचयिता परमहंस पूर्णानन्द यति थे । इनका जन्म वर्तमान बांग्लादेश के मयमनसिंह जनपद के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनका समय सोलहवीं शदी के आस-पास माना गया है। इन्होंने गुरु से दीक्षा प्राप्त कर उनके मार्गनिर्देशन में सिद्धि प्राप्त की, जिससे वे कालान्तर में ‘परमहंस पूर्णानन्द यति’ के नाम से विख्यात हुए ।

परमहंस पूर्णानन्द के प्रसिद्ध ग्रन्थ श्रीतत्त्वचिन्तामणि में पच्चीस अध्याय हैं। इसमें छठा अध्याय षट्चक्रनिरूपणम् है। इस अध्याय में कुछ ५५ श्लोक है। इन श्लोकों का विषयभेद से विभाजन इस प्रकार किया गया है –

(१) श्लोकसंख्या १ से ३ तक विभिन्न नाड़ियों का निरूपण है।

(२) श्लोकसंख्या ४ से १३ तक मूलाधार चक्र का निरूपण है।

(३) श्लोकसंख्या १४ से १८ तक स्वाधिष्ठान चक्र का निरूपण है।

(४) श्लोकसंख्या १९ से २१ तक मणिपूर चक्र का निरूपण है।

(५) श्लोकसंख्या २२ से २७ तक अनाहत चक्र का वर्णन है।

(६) श्लोकसंख्या २८ से ३१ तक विशुद्ध चक्र का वर्णन है।

(७) श्लोकसंख्या ३२ से ३८ तक आज्ञा चक्र का निरूपण है।

(८) श्लोकसंख्या ३९ से ४९ तक सहस्रार चक्र का निरूपण है।

(९) श्लोकसंख्या ५० से ५५ तक कुण्डलिनी-उत्थान, कुण्डलिनी-प्रत्यावर्तन, गुरुदेव की प्रशंसा तथा ग्रन्थ के माहात्म्य का निरूपण है।

अब संक्षेप में प्रमुख नाड़ियों एवं षट्चकों का वर्णन किया जा रहा है। शिवसंहिता के अनुसार इस शरीर में बहुत-सी नाड़ियाँ है, जिनकी संख्या साढ़े तीन लाख है। इनमें में १४ मुख्य नाडियाँ हैं- (१) सुषुम्णा (२) इड़ा (३) पिंगला (४) गान्धारी (५) हस्तिजिह्वा (६) कुहू (७) सरस्वती (८) पूषा (९) शंखिनी (१०) पयस्विनी (११) वरुणा (१२) अलंबुषा (१३) विश्वोदरी (१४) यशस्विनी। इन चौदह नाड़ियों में भी (१) इड़ा (२) पिंगला और (३) सुषुम्णा प्रधान नाड़ियाँ हैं

सार्द्धलक्षत्रयं नाड्यः सन्ति देहान्तरे नृणाम् ।

प्रधानभूता नाड्यस्तु तासु मुख्याश्चतुर्दश ।।

सुषुम्णेड़ा पिंगला च गान्धारी हस्तिजिह्वका ।

कुहू सरस्वती पूषा शंखिनी च पयस्विनी ।।

वारुणालम्बुषा चैव विश्वोदरी यशस्विनी ।

एतासु तिस्रो मुख्याः स्युः पिङ्गलेड़ा सुषुम्णिका ।। (शिवसंहिता- २.१३-१५)

समस्त नाड़ियों के उद्गम स्थान को नाड़ीकन्द कहते हैं। उपरोक्त तीन प्रमुख नाड़ियों का उद्गम स्थान नाड़ीकन्द है। गुदा से दो अंगुल ऊपर तथा मेढ़ से दो अंगुल नीचे चार अंगुल के विस्तार का पक्षी के अण्डे के आकार के समान यह नाड़ीकन्द स्थित है। नाड़ीकन्द के ऊपर एवं शरीर के पीछे भाग में मेरुदण्ड स्थित है। इड़ा नामक नाड़ी इसी नाड़ीकन्द से निकलकर मेरुदण्ड के बाँयें भाग में होकर आज्ञाचक्र से होते हुए नासारन्ध्र तक गयी है। इसी भाँति पिङ्गला नामक नाड़ी दाहिनी ओर से होकर आज्ञाचक्र से होती हुई नासारन्ध्र तक गई है।

सुषुम्णा नामक नाड़ी कन्दमूल से निकलकर मेरुदण्ड के मध्य से होकर सहस्त्रार तक गयी है। इड़ा नाड़ी का अधिष्ठातृ देवता चन्द्र है, इसलिए इसे चन्द्रनाड़ी भी कहते हैं। यह अमृतस्वरूपा व शुक्ल (श्वेत) वर्ण वाली है। इस नाड़ी से शीतलता की अनुभूति होती है। पिङ्गला नाड़ी का अधिष्ठातृ देवता सूर्य है, इसलिए इसे सूर्यनाड़ी भी कहते हैं। इस नाड़ी से उष्णता (गर्मी) की अनुभूति होती है। यह सूर्यविग्रहा व दाड़िमी केसर की भाँति प्रभा वाली है। सुषुम्णा नाड़ी को चन्द्र-सूर्याग्निस्वरूपा तथा तीन गुणों वाली कहा गया है। इसका मुख भाग खिले हुए धतूरे के पुष्प के समान है।

सुषुम्णा नाड़ी के मध्य में स्थित छिद्र भाग में वज्रा नामक नाड़ी स्थित है। यह वज्रा नाड़ी मेद्र प्रदेश से निकलकर सिर में स्थित सहस्त्रार तक गयी है। इसी वज्रा नामक नाड़ी के मध्य भाग में स्थित छिद्रभाग में चित्रिणी नामक नाड़ी स्थित है, जो सहस्त्रार तक गयी है। इस चित्रिणी नाड़ी से समस्त कमल गूँथे हुए हैं। यही चित्रिणी नाड़ी समस्त कमलों का भेदन करती है। इस चित्रिणी नाड़ी के मध्य भाग में स्थित छिद्रभाग को ब्रह्मनाड़ी कहते हैं। यह छिद्र मूलाधार चक्र में स्थित स्वयम्भू लिङ्ग के छिद्र से प्रारम्भ होकर सहस्त्रार में स्थित ब्रह्म तक है; इसीलिए यह छिद्र ब्रह्मनाड़ी कहलाता है। कन्द एवं सुषुम्णा के सन्धिस्थान को ब्रह्मद्वार कहते हैं। सहस्त्रार में स्थित ब्रह्म से अमृत की धारा यहीं तक प्रवाहित होती रहती है।

मूलाधार चक्र – सुषुम्णा नाड़ी के मुख से संलग्न ध्वजा (लिंग पुरुषों में, योनि स्त्रियों में) के नीचे तथा गुदा के ऊपर स्थित प्रदेश में मूलाधार पद्म की स्थिति है। इसका मुख नीचे की ओर है तथा इसमें चार दल हैं। इन दलों का रंग लाल है तथा इन दलों पर सोने के समान कान्ति वाले व, श, ष, स-यह चार अक्षर स्थित है।

मूलाधार कमल की कर्णिका के मध्य में एक चार कोण का पृथिवीमण्डल है; यह पीले रंग का है। यह आठ दिशाओं के आठ शूलों से घिरा है। उसी के मध्य के अधोभाग में पृथिवीबीज ‘लं’ विराजमान है। यह पीले रंग का, चार भुजाओं वाला तथा ऐरावत हाथी पर सवार है।

पृथिवी बीज ‘लें’ के बिन्दु के मध्य में शिशुरूप ब्रह्मा विद्यमान है। इसके चार मुख, चार भुजायें तथा शरीर का रंग लाल है। इसकी चारों भुजाओं में दण्ड, कमण्डलु, अक्षसूत्र तथा अभयमुद्रा सुशोभित है। यह ब्रह्मा मूलाधार पद्म का अधिष्ठातृ देवता है।

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