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Yoni Tantram (योनितन्त्रम)

32.00

Author Ajay Kumar Uttam
Publisher Bharatiya Vidya Sansthan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 1st edition, 2003
ISBN 81-87415-44-4
Pages 34
Cover Paper Back
Size 12 x 2 x 19 (l x w x h)
Weight
Item Code BVS0109
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Description

योनितन्त्रम (Yoni Tantram) साधना जगत में तीन भाव प्रचलित हैं- पशुभाव, वीरभाव एवं दिव्यभाव। सभी साधनायें इन्हीं तीन भावों के अन्तर्गत की जाती हैं, चाहे वे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय की क्यों न हों। तन्त्रसाधना में इन तीनों का ही आश्रय लिया जाता है। साधक की सबसे निम्न अवस्था पशुभाव की होती है। साधक की मध्यम अवस्था वीरभाव की एवं श्रेष्ठतम अवस्था दिव्यभाव की होती है। यद्यपि कुछ ग्रन्थ पशुभाव को ही श्रेष्ठतम मानते हैं; तथापि प्रायः सभी ग्रन्थ इस पर एकमत हैं कि पशुभाव सबसे निकृष्ट, वीरभाव मध्यम एवं दिव्यभाव श्रेष्ठतम है।

वैष्णवाचार को ही पशुभाव कहा गया है। साधना की आरम्भिक अवस्था में पशुभाव अत्यन्त ही आवश्यक है। वैष्णवाचार के सभी नियम पशुभाव में लागू होते हैं। तान्त्रिक साधना में प्रवेश पाने के लिये पशुभाव का आचरण अत्यन्त हो आवश्यक है। पशुभाव के उपरान्त ही साधक वीरभाव में प्रवेश कर सकता है। वीरभाव की पृष्ठभूमि पृथक ही होती है। इसमें पश्च मकार-मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा तथा मैथुन का स्थूल एवं वास्तविक स्वरूप में प्रयोग किया जाता है। इसकी सभी क्रियायें वीरभाव से ही की जाती हैं। वीरभाव से आगे की अवस्था दिव्यभाव की है। इसमें पश्च मकारों का प्रयोग सूक्ष्म रूप में किया जाता है। यही साधना की श्रेष्ठतम अवस्था है।

प्रस्तुत ग्रन्थ ‘योनि तन्त्र’ वीरभाव से सम्बन्धित है। इससे पूर्व भी इस ग्रन्थ का प्रकाशन हो चुका है, किन्तु वे प्रकाशन काफी अशुद्ध एवं भ्रामक रहे हैं। इस संस्करण में उक्त प्रकार की अशुद्धियों को पूर्णतया ठीक कर दिया गया है।

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