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Aatma Anushasan (आत्मानुशासन)

75.00

Author Pt. Todarmalla
Publisher Shri Janesh Varni Digamber Jain Sansthan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 1st edition
ISBN -
Pages 186
Cover Hard Cover
Size 14 x 1 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code PV00085
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Description

आत्मानुशासन (Aatma Anushasan) भारतीय सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, तत्त्वज्ञान एवं विज्ञान जैसे. विविध विषयोंकी बहुमूल्य सामग्री प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, देशी तथा दक्षिण भारतीय भाषाओंके विपुल जैन वाङ्मयमें उपलब्ध है। किन्तु इस दिशामें अनुसंधान, प्रकाशन, अन्तरशास्त्रीय अध्ययन एवं सम्पादन की जितनी अपेक्षा है उतना कार्य हो नहीं पा रहा है। इसके लिए आव- श्यक है अपने ज्ञानके प्रतीकोंके युगानुकूल सहज एवं व्यावहारिक प्रस्तुति में सक्षम उत्क्रान्त प्रतिभाओं की । हमारे महान् जैनाचार्योंने जीवनके अन्तः और बाह्य इन दोनों पहलुओंको खूब बारीकीसे देखा, समझा तथा अनुभव किया और पर-कल्याणकी भावनासे ओतप्रोत हो वाणी एवं लेखनी द्वारा प्रकट किया। प्रस्तुत कृतिके मूल ग्रन्यकार भदन्त गुणभद्र (नवीं शती) भी इसी परम्पराके आचार्योंमें से एक थे।

प्रस्तुत ग्रन्थ आत्मतत्त्वकी श्रद्धा करानेवाला अनुपम काव्य ग्रन्थ है। वैसे प्रत्येक साहित्य बाह्यरूपमें अपने देश और कालकी सीमासे किसी न किसी रूपमें बँधा होता है। किन्तु उसके अन्तजगतमें सामञ्जस्य सर्वकल्याण, आध्यात्मिक विकास तथा सत्-चित् एवं आनन्दके जो स्थायी तत्त्व निहित रहते हैं वे देश तथा कालातीत होते हैं। सुभाषितमय इस सम्पूर्ण ग्रन्थमें भी काव्योचित विविध दृष्टान्तों, अलंकारों एवं छन्दोंके माध्यमसे जीवन-उत्कर्षके लिए ममंकी बात सहजरूपमें कही गई है। इस ग्रन्थका प्रत्येक श्लोक अपने आपमें स्वतन्त्र काव्य भी है। इस कृति की यह भी विशेषता है कि अध्यात्म-विद्यासे सम्बन्धित प्रायः सभी विषयों को प्रमुख आधार बनाकर सुभाषितों द्वारा सहृदयोंके कोमलतम अन्तस् को बड़ी सूक्ष्मता एवं कलात्मकतासे छूनेका सफल प्रयास इस ग्रन्थमें हुआ है। मानवोचित गुणोंका पाथेय जुटाने, उसे दिग्भ्रमित होनेसे बचाने तथा सही मार्गदर्शन करते रहनेकी प्रशस्त पृष्ठभूमिके सूत्र इस ग्रन्थके प्राण हैं। जीवन-उत्कर्षकी ये अनुभूत प्रणालियाँ मुमुक्षु जीवको शान्ति और आनन्द प्रदान करती हैं। यही कारण है कि यह ग्रन्थ आरम्भसे ही सभीके आकर्षणका केन्द्र रहा है। इसी महत्तासे प्रभावित हो कुछ आचार्यों एवं विद्वानोंने इस ग्रन्थ पर व्याख्या लिखकर अपनी लेखनीको सार्थक बनाया है।

इस ग्रन्थकी विविध विशेषताओस प्रभावित हो पण्डित टोडर- मलजी (१८वीं शती) ने देशभाषामें इसका सरल अनुवाद किया। यह अनुवाद मिश्रित प्राचीन हिन्दी भाषाका सुन्दर उदाहरण है, जिसमें राजस्थानके ढूंढार प्रदेशकी ढूंढारी भाषा, ब्रजभाषा तथा खड़ी बोली का पुट है। आज भी देशके कोने-कोने में स्थित जैन मंदिरोंमें नियमित रूप से चलनेवाले प्रवचन, स्वाध्याय एवं तत्त्व चर्चाओं आदिमें इस भाषाके शास्त्र भी बड़ी रुचिके साथ पढ़े जाते हैं। इस दृष्टिसे इस भाषाका अपना माधुर्य और वैशिष्टय है। पं० टोडरमलजीके लेखनका प्रमुख उद्देश्य उच्च आध्यात्मिक एवं सैद्धान्तिक ज्ञानको प्रचलित देश-भाषामें सरल ढंगसे प्रस्तुत करना था। गहरेसे गहरे तथ्योंको भी बड़ी ही सहज रीतिमें व्यक्त करनेकी उनकी विशेषता है। क्योंकि किसी कविके अन्तर्मनको पूरी तरह समझकर उसकी भावग्राही व्याख्या करना भी अपने-आपमें काफी कठिन कार्य है, किन्तु अद्भुत प्रतिभा और विविध शास्त्रोंके तलस्पर्शी ज्ञानके धनी पं० टोडरमलजी इस गुरुतर दायित्वके निर्वाहमें खरे उतरे तथा मूल रचयिताके परे भावोंको समीचीन रूपमें प्रस्तुतकर इस ग्रन्थमें अन्तनिहित विशेषताओंको पूरी तरह प्रकाशन किया है।

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