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Adhyatma Ramayan (अध्यात्मरामायण)

135.00

Author Sri Muni Lal Gupt
Publisher Gita Press, Gorakhapur
Language Sanskrit & Hindi
Edition 51th edition
ISBN -
Pages 366
Cover Hard Cover
Size 19 x 2 x 27 (l x w x h)
Weight
Item Code GP0077
Other Code - 74

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Description

अध्यात्मरामायण (Adhyatma Ramayan)

मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिम्।

यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम् ।।

भगवान्‌ की लीला का रहस्य कौन जान सकता है। बड़े-बड़े ऋषि, मुनि, महात्मा और सिद्धगण आजन्म उसी का मनन करते रहने पर भी उसका पार नहीं पा सके। किन्तु वह इतनी दुर्विज्ञेय और गूढ़ होने पर भी कितनी मधुर, मन मोहिनी और कल्याणमयी है। रसिक जन संसार के सभी भोगों को छोड़कर अपनी आयुको एकमात्र उसीके अनुशीलनमें लगाकर अपनेको अत्यन्त बड़भागी समझते हैं। वे उसकी माधुरीका आस्वादन करते-करते कभी नहीं अघाते। अन्य लौकिक एवं पारलौकिक भोगोंका पर्यवसान उनसे विरक्त हो जाने अघा जानेमें होता है, किन्तु इस लोकोत्तर रससे इसके रसिकका चित्त कभी नहीं ऊबता। जिसका चित्त इससे ऊबने लगे, समझना चाहिये उसने इसका आस्वादन ही नहीं किया। इसीलिये रसिकचक्रचूड़ामणि श्रीमद्‌गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-

राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं ॥ 

धन्य हैं वे महाभाग, जिन्हें उसके यथेष्ट आस्वादनका सौभाग्य प्राप्त हुआ है। भगवान्के उसी दुर्लभ गूढ़ रहस्यको, जिसका यथावत् समझना बड़े-बड़े मेधावी आचार्य और योगनिष्ठ यतियोंके लिये भी अत्यन्त कठिन है और जिसे विभिन्नरूपसे ग्रहण करनेके कारण ही इस अनादि संसारमें अनादिकालसे अनन्त सम्प्रदायों और मतोंकी प्रवृत्ति होती आयी है, मुझ जैसे मन्दमतिको ठीक-ठीक समझ लेना कैसे सम्भव है? उसे समझनेके योग्य मेरे पास विद्या, बुद्धि, विवेक अथवा श्रद्धा आदि कोई भी तो सामग्री नहीं है। इस ओर मेरा प्रवृत्त होना भी बड़ी हँसीकी बात है और प्रवृत्त होनेके अनन्तर जितनी भी सेवा मुझसे बनी है उसपर भी मुझे तो आश्चर्य है। मैं इस बातको स्वयं ही अनुभव करता हूँ कि इस अनधिकार चेष्टामें प्रवृत्त होकर मैं विद्या और विद्वानोंका अपराध कर रहा हूँ। किन्तु, एक विचार है जो मुझे इन संकोच और आश्चर्य दोनोंहीसे मुक्त कर देता है। हम पद-पदपर देखते हैं कि अपनी इच्छा न होनेपर भी हमें बलात् बहुत-से ऐसे कार्योंमें लग जाना पड़ता है, जिनमें प्रवृत्त होनेको पहले कभी आशा भी नहीं थी। इसका कारण यही है कि हमारी सारी प्रवृत्तियोंका नियामक कोई और ही है, जो देहाभिमानके पर्देमें छिपा हुआ हमारे अन्तःकरणमें विराजमान है।

हमारी सारी प्रवृत्तियाँ उस हृदयस्थित देवके ही इशारेपर नाचती रहती हैं। वस्तुतः तो ‘हमारी प्रवृत्तियाँ, हमारी चित्तवृत्तियाँ’ ऐसा कहना और मानना भी अज्ञानवश परिच्छिन्न अहंकारको स्वीकार करनेके ही कारण है। विज्ञान-विभावसुका विमल प्रकाश होनेपर अज्ञानान्धकारके नष्ट होते ही जब देहाभिमानरूप उलूक न जाने कहाँ लुक जाता है, तब कर्ता, कर्म और करणादिका कोई भेद नहीं रहता। फिर तो प्रवृत्ति, प्रवर्तक और प्रवर्त्य-सब कुछ एकमात्र वह अन्तर्यामी ही रहते हैं, जिनके यत्किंचित् कृपा कटाक्षसे ही यह सम्पूर्ण प्रपंच भासित हो रहा है तथा जिनकी सत्ता पाकर ही यह सर्वथा असत् होनेपर भी, ध्रुव-सत्य बना हुआ है। अतः हमारा सारा संकोच और आश्चर्य तभीतक है जबतक हम सच्चे कर्ताको भूलकर तुच्छ देहाभिमानके सिरपर सारे कर्तृत्व-भोक्तृत्वका भार लाद देते हैं और उस देहाभिमानको देहाभिमान न समझकर अपना परमार्थस्वरूप मान बैठते हैं, नहीं तो जो लीलामय बिना किसी प्रयोजनके केवल लीलाके लिये ही इच्छामात्रसे इस अनन्त ब्रह्माण्डकी सृष्टि करते हैं, जिनकी मायासे मोहित होकर हमारी इस हाड़-मांसके पंजरमें आत्मबुद्धि होती है और फिर इसीकी आसक्तिमें फँसकर स्त्री-धन-धरती आदि महाघृणित और असार वस्तुओंमें रमणीय-बुद्धि होती है तथा जिनके लेशमात्र कृपाकणसे यह अनन्त ब्रह्माण्ड बालूकी भीत हो जाता है, उन महामहिम सर्वशक्तिमान् सर्वेश्वरके लिये क्या दुष्कर है? उनकी जैसी इच्छा होती है उसी ओर सबको प्रवृत्त होना पड़ता है और उनकी इच्छाके अनुसार ही उन्हें उसमें सफलता अथवा असफलता प्राप्त होती रहती है।

अस्तु, ‘तोमार इच्छा पूर्ण हउक करुणामय स्वामी’ इस बंग-कहावतके अनुसार प्रभुने जो कार्य सौंपा है उसे उन्हींका काम समझकर उन्होंके इंगितके अनुसार करते रहनेमें ही हमारा कल्याण है; और वास्तवमें हम करते भी ऐसा ही हैं, परन्तु ऐसा समझते नहीं। इसीलिये उसकी सफलता असफलतामें हर्ष- शोकके शिकार होते हैं। प्रभु हमें ऐसा ही समझते रहनेको शक्ति प्रदान करें।

श्रीमदध्यात्मरामायण कोई नवीन ग्रन्थ नहीं है, जिसके विषयमें कुछ विशेष कहनेको आवश्यकता हो। यह परम पवित्र गाथा साक्षात् भगवान् शंकरने अपनी प्रेयसी आदिशक्ति श्रीपार्वतीजीको सुनायी है। यह आख्यान ब्रह्माण्डपुराणके उत्तरखण्डके अन्तर्गत माना जाता है। अतः इसके रचयिता महामुनि वेदव्यासजी ही हैं। इसमें परम रसायन रामचरितका वर्णन करते-करते पद-पदपर प्रसंग उठाकर भक्ति, ज्ञान, उपासना, नीति और सदाचार- सम्बन्धी दिव्य उपदेश दिये गये हैं। विविध विषयोंका विवरण रहनेपर भी इसमें प्रधानता अध्यात्मतत्त्वके विवेचनकी ही है। इसीलिये यह ‘अध्यात्मरामायण’ कहलाता है। उपदेशभागके सिवा इसका कथाभाग भी कुछ कम महत्त्वका नहीं है। भगवान् श्रीराम मूर्तिमान् अध्यात्मतत्त्व हैं, उनके परमपावन चरित्रकी महिमाका कहाँतक वर्णन किया जाय? आजकल जिस श्रीरामचरितमानसमें अवगाहनकर करोड़ों नर-नारी अपनेको कृतकृत्य मान रहे हैं, उसके कथानकका आधार भी अधिकांशमें यही ग्रन्थ है। श्रीरामचरितमानसकी कथा जितनी अध्यात्मरामायणसे मिलती-जुलती है उतनी और किसीसे नहीं मिलती। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि श्रीगोस्वामी तुलसीदासजीने भी इसीका प्रामाण्य सबसे अधिक स्वीकार किया है।

अबतक इस ग्रन्थके कई अनुवाद हो चुके हैं। चार-पाँच तो मेरे देखनेमें भी आये हैं। प्रस्तुत अनुवादमें श्रीवेंकटेश्वर स्टीमप्रेसद्वारा प्रकाशित स्वर्गीय पं० बलदेवप्रसादजी मिश्र तथा स्वर्गीय ५० रामेश्वरजी भट्टके अनुवादोंसे सहायता ली गयी है। इसके लिये उक्त दोनों महानुभावोंका में हृदयसे कृतज्ञ हूँ। इस ग्रन्थरत्नका अनुवाद करनेका आदेश देकर गीताप्रेसने मुझे इसके अनुशीलनका अमूल्य अवसर दिया है और फिर उसीने इसका संशोधन कराकर इसे प्रकाशित करनेकी भी कृपा की है, इस उपकारके लिये मैं संचालकोंका हृदयसे आभारी हूँ।

अन्तमें, जिन लीलामयके लीलाकटाक्षसे प्रेरित होकर यह लीला हुई है, उनकी यह लीला आदरपूर्वक उन्हींको समर्पित है। इसमें यदि कुछ अच्छा है तो उन्हींके कृपाकटाक्षका प्रसाद है और जो भूल है वह मेरी अहंकारजनित धृष्टताका फल है। इत्यलम्।

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