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Advait Anubhuti (अद्वैतानुभूतिः)

127.00

Author Dr . Laxmikant Vimal
Publisher Chaukhambha Sanskrit Pratisthan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2011
ISBN -
Pages 105
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSP0077
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Description

अद्वैतानुभूतिः (Advait Anubhuti) शङ्करभगवत्पादविरचित अद्वैतानुभूति का अर्थ ‘अद्वैतस्य अनुभूतिः’ अर्थात् अद्वैत की अनुभूति है। मधुसूदन सरस्वती ने अद्वैत का अर्थ सिद्धान्तविन्दु में इस प्रकार से किया है-दो को प्राप्त हुआ द्वीत कहलाता है, उसका भाव द्वैत है। वार्तिककार सुरेश्वर ने कहा है कि दो प्रकार को प्राप्त वस्तु को द्वीत कहते हैं, उसके भाव को द्वैत कहते हैं। जिसमें द्वैत या द्विधाभाव नहीं है, वह अद्वैत कहलाता है। कैयट ने महाभाष्य की प्रदीप टीका में द्वैत पद की दो व्युत्पत्तियाँ प्रस्तुत की हैं। प्रथम व्युत्पत्ति के अनुसार संख्यावाची द्वि शब्द से तल् प्रत्यय होकर द्विता पद निष्पन्न हुआ और उसका भाव अर्थात् सत्ता द्वैत है, जो संशयरूपज्ञान कहलाता है। द्वितीय व्युत्पत्ति यह है कि दो प्रकार से विरुद्ध होने से भिन्न आधार वाले (भाव) से युक्त वस्तु द्वीत है। उसका भाव अर्थात् सत्ता द्वैत है, जो संशयरूपज्ञान कहलाता है। ‘इण् गतौ’ घतु से भूतकालिक क्त प्रत्यय होने से इतः पद निष्पन्न होता है। कैयट ने विरुद्धत्वाद्भिन्त्राधारवर्तिना का प्रयोग किया है। उसका तात्पर्य यह है कि एक ही ढूँठ वृक्ष अपना आधार होने के साथ-साथ अन्धकार में पुरुष के अम का भी आधार होता है, भ्रम के कारण विरुद्ध है। विरुद्ध का अर्थ है जो अपने आधर के साथ- साथ अन्य का आधार बन जाय, वह संशय ज्ञान है। कैयटकृत द्वैत की इस व्युत्पत्ति से उनकी अद्वैतनिष्ठता का अनुमान किया जा सकता है। अद्वैत वेदान्त के सन्दर्भ में ब्रह्मरूप आधार में जगत् भी भासित होता है, जो विरुद्ध होने से संशयोत्पत्ति का कारण बनता है।

अद्वैत का अर्थ ब्रह्म है। इस प्रकार जो कोई उत्कर्ष और अपकर्ष को त्यागकर मैं ही उपर्युक्त सत्य ज्ञान और अनन्तरूप अद्वैत ब्रह्म हूँ’ ऐसा जानता है एवं अद्वैत को आत्मा कहा गया है’। इत्यादि वाक्यों से अद्वैत का अर्थ ब्रह्म या आत्मा है। अनुभूति पद का अर्थ अनुभव होता है। अनुभूति में ‘क्तिन्’ प्रत्यय और अनुभव में ‘अच्’ प्रत्यय है। प्रत्यय भेद से लिङ्ग में भेद है, परन्तु अर्थ में भेद नहीं है। शङ्कर ने भाष्यग्रन्थों में अनुभव पद का प्रचुर प्रयोग किया है। ब्रह्मसूत्र शाङ्करभाष्य में एक स्थान पर अनुभव का इस प्रकार से वर्णन है- धर्मजिज्ञासा के समान ब्रह्मजिज्ञासा में केवल श्रुति आदि ही प्रमाण नहीं है, अपितु श्रुति आदि तथा अनुभव आदि यथासम्भव उसमें प्रमाण हैं, क्योंकि ब्रह्मज्ञान सिद्धवस्तु विषयक और अनुभव में पर्यवसित होता है। इस पर टीका करते हुए वाचस्पति मिश्र ने ब्रह्मानुभव का अर्थ ब्रह्मसाक्षात्काररूप परम पुरुषार्थ को स्वीकार किया है। ‘मैं मूढ़ हूँ, मेरी बुद्धि मलिन है’ इस प्रकार अविद्या भी अपने अनुभव के द्वारा निरूपित की जाती है। एक अन्य स्थल पर शङ्कर लिखते हैं कि कोई भी बुद्धिमान् अनुभव का अपलाप नहीं कर सकता।

शङ्कर ने विवेकचूडामणि में भी अपरोक्षानुभव का वर्णन किया है जिस प्रकार औषध को बिना पिये केवल औषध शब्द के उच्चारण मात्रा से रोग दूर नहीं हो जाता, उसी प्रकार अपरोक्षानुभव के बिना केवल ब्रह्म-ब्रह्म कहने से कोई मुक्त नहीं हो सकता है। बिना शत्रुओं का वध किये और बिना सम्पूर्ण पृथिवीमण्डल का ऐश्वर्य प्राप्त किये, ‘मैं राजा हूँ’- ऐसा कहने से कोई राजा नहीं हो जाता। शङ्कर ने गीता भाष्य में विज्ञान को स्वानुभव कहा है। इससे यह प्रतीत होता है कि सामान्यतया जो कुछ हम जानते हैं वह ज्ञान है जब उसका अनुभव होता है तब वह विज्ञान कहलाता है। जब अनुभव और अनुभूति का एक ही अर्थ होता है तब शङ्कर ने अद्वैतानुभव नाम नहीं रखकर अद्वैतानुभूतिः रखा, इसमें क्या कारण है? इसका समाधान यह है कि अनेक लिङ्गसम्भव होने पर भी कोमलता के लिए स्त्रीलिङ्ग शब्द का ही प्रयोग कवि के द्वारा किया जाता है। अद्वैतानुभूति एक प्रकरण ग्रन्थ है, जिसकी परिभाषा इस प्रकार है- जो ग्रन्थ किसी शास्त्र के एक अंश से सम्बद्ध होता है तथा शास्त्र के ही कार्य विशेष में स्थित होता है अर्थात् प्रयोजनानुसार उपयोगी अंशों को ग्रहण करने वाले ग्रन्थ भेद को विद्वान् प्रकरण ग्रन्थ कहते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ शाङ्करवेदान्त के ही प्रतिपाद्य जीव की मुक्ति के उपाय का प्रतिपादन करता है। अतः यह शाङ्करवेदान्त का प्रकरण ग्रन्थ है।

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