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Antaryatra (अन्तर्यात्रा)

148.00

Author Dr. Gopinath Kaviraj
Publisher Bharatiya Vidya Prakashan
Language Hindi
Edition 1st edition, 2021
ISBN 81-217-0090-6
Pages 144
Cover Paper Back
Size 13 x 0.5 x 21 (l x w x h)
Weight
Item Code TBVP0097
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Description

अन्तर्यात्रा (Antaryatra) अन्तर्यात्रा के प्रारम्भ में यह विवेचना आवश्यक है कि अन्तः एवं बाह्य, व्यवहार दृष्टि से किस भाव के द्योतक हैं ? संक्षेप में व्यवहार भूमि में बहो कहा जा सकता है कि जो लण्डित, विक्षिप्त, परिवर्तनशील भाव है, परिणामी है, वही बाह्य है। यही परिच्छिन्नता है। इसे शास्त्र कार्यात्मभाव कहते हैं। यह जन्म-स्थित्ति आदि पर्विकार रूप है। ब्रह्म-से लेकर स्थावर पर्यन्त सब कुछ कार्यात्मभाव होने के कारण परिच्छिन्न है। अतीत, अनागत, वर्तमान रूप कालत्रयात्मक है। यह पुरुष का माया परिच्छिन्न भाव है। परमपुरुष का बाह्य आयाम माया के कारण पुनः पुनः व्यक्तावस्था में गमन करता रहता है। यह उनका चतुर्थांश मात्र है। शेष पादत्रय माया विनिर्मुक्त होने के कारण उनकै अन्तः आयाम रूप से प्रसिद्ध है। अतः बाह्यता को छोड़ते हुये अर्थात् चतुर्षांन रूप परिच्छिन्न भाव का अपोहन करते हुये परमेश्वर के पादत्रय की ओर की उन्मुखता को ही अन्तर्यात्रा कहा जा सकता है। इसे साबक गण क्रममागं से तथा युक्त योगीगण अक्रम रूप से प्रत्यक्ष करते हैं। अन्तः आयाम अविकृत रूप है। बहिः आयाम कालशक्ति के आश्रय से, कालशक्ति के कारण, विकृतवत् उपलब्ध होता है।

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