Astanga Hridayam (अष्टाङ्गहृदयम्)
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Author | Dr. Brahmanand Tripathi |
Publisher | Chaukhambha Sanskrit Pratisthan |
Language | Hindi & Sanskrit |
Edition | 2022 |
ISBN | 978-81-7084-125-8 |
Pages | 1295 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0654 |
Other | You Will Get Free Pen Pack of 5 Pics. |
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अष्टाङ्गहृदयम् (Astanga Hridayam) अष्टाङ्गहृदयम् की विशेषता – अष्टांगसंग्रह की विस्तार से रचना करने के बाद जब वाग्भट ने साररूप ‘हृदय’ की रचना की तो विषयों को संक्षेप में उपस्थित करना आवश्यक हो गया था। व्यास-संक्षेप रचनाचतुर वाग्भट ने इस ग्रन्थ में सम्बन्धित विषयों की पूर्ति कैसे और कहाँ से की होगी, इसका ध्यान रखते हुए सम्पूर्ण ग्रन्थ में जहां-जहां जो संकेत दिये हैं, उन्हें व्याख्याकाल में सन्दर्भ-सकेत देकर अधिक स्पष्ट कर दिया गया है। इनकी सहायता से विज्ञ पाठक उन विषयों को यथास्थान सरलता से ढूंढ़ लेगा। साथ ही स्थान-स्थान पर ‘अष्टांगहृदय’ के दुरुह विषयों को स्पष्ट करने की दृष्टि से जिन-जिन विषयों को ग्रन्थान्तरों से लिया गया है, उनके भी सन्दर्भ संकेत यथास्थान दे दिये हैं। मूल ग्रन्थ की टीका के अन्त में वक्तव्य तथा विशेष वचन दिये गये हैं, जो ग्रन्थ के आशय को स्पष्ट करने में सहायक होंगे। यद्यपि ‘अष्टांगहृदय’ में ग्रन्थकार ने तन्त्रयुक्तियों का उल्लेख नहीं किया है जिसका अष्टांगसंग्रह में उल्लेख हुआ है। अतः उनका परिगणन मात्र हमने यथास्थान अपने वक्तव्य में कर दिया है। औषधनिर्माण प्रसंग में जहाँ-जहाँ आवश्यक समझा गया वहाँ-वहाँ औषध द्रव्य परिमाण तथा उसके निर्माण विधि का भी उल्लेख कर दिया गया है। प्रस्तुत ‘निर्मला’ व्याख्या की ये विशेषताएँ हैं।
अष्टांगहृदय एक संग्रह-ग्रन्थ है। इसमें चरक, सुश्रुत, अष्टांगसंग्रह के तथा अन्य अनेक प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रन्थों से उद्धरण लिये गये हैं। वाग्भट ने अपने विवेक से अनेक प्रसंगोचित विषयों का प्रस्तुत ग्रन्थ में समावेश किया है, यही कारण है कि इस ग्रन्थ का रूप अद्यतन बन पड़ा है। चरक आदि प्राचीन तन्त्रकारों ने जिन विषयों का सामान्य रूप से वर्णन किया था, उन्हें वाग्भट ने प्रमुख रूप देकर पाठकों का इस ओर विशेष ध्यानाकर्षण किया है; जैसे- रक्तविकारों में रक्तनिर्हरण (सिरावेध, फस्द खोलना) एक महत्त्वपूर्ण चिकित्सा है। वातविकारों में आयुर्वेदीय विधि से बस्ति-प्रयोग करना अपने में एक दायित्वपूर्ण चिकित्सा है। जिसकी आज का चिकित्सक समाज प्रायः उपेक्षा कर बैठा है। शिलाजतु प्रयोग – शास्त्रीय विधि से इसका दीर्घकाल तक सेवन करना तथा कराना चाहिए। पथ्य-अपथ्य का विचार करके किया गया इसका पयोग रोग को नष्ट करके दीर्घायु प्रदान करता है। अग्यद्रव्यसंग्रह- यह (अ.हृ.उ. ४०।४८-५८) प्रमुख रोगों में हितकर है। भूल किसी से भी हो सकती है, क्योंकि कहा गया है-‘प्रमादो धीमतामपि’ । अतः प्रामादिक अंशों को छोड़कर महत्त्वपूर्ण विषयों का ग्रहण करना विद्वानों का कर्तव्य है।
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