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Bhakti Sagar Adi (भक्तिसागरादि 17 ग्रन्थ)

315.00

Author Swami Charan Das Ji
Publisher Khemraj Sri Krishna Das Prakashan, Bombay
Language Hindi
Edition 2019
ISBN -
Pages 420
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code KH0033
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Description

भक्तिसागरादि 17 ग्रन्थ (Bhakti Sagar Adi) प्रस्तुत ग्रन्थ के रचियता श्रीयुत स्वामी चरणदासजी महाराज का सुयश तो जगत में भलीभांति विख्यातही है परंतु यहां वर्णन करनेकी आबश्यकता समझकर संक्षेपरीतिसेही लिखा जाता है। वह इस रीतिसे है कि, श्रीमान् चरणदासजी संवत् १७६० विक्रममें मवात देश प्रांत अलवर राजधानीके निकट डहरा ग्राममें भृगुवंश अर्थात् च्यवनकुलमें श्रीमती कुजोमाताके गर्भसे उत्पन्न हुए; श्रीमान्के कुलकी आठवीं पीढीमें पूर्वजन्मज्ञानी परमप्रेमी परमभक्त शोभनदासजी हुए हैं, जब उनकी प्रेमभक्ति पूर्णताको पहुँच गई तो उनको श्रीवृंदावनयुगल-विहारीलाल महाराजने प्रत्यक्ष दर्शन देकर वर मांगनेकी आज्ञा दी। तब शोभनदासजीने भी यही वर मांगा कि, मेरे कुलमें सदैव आपकी भक्ति बनी रहे इससे बढकर और कोई पदार्थ मांगनेके लायक नहीं है। तब युगल सरकारने तथास्तु कहकर आज्ञा की कि, तुम्हारे पश्चात् आठवीं पीढीमें हमारा अंशावतार संतरूप प्रगट होकर जगत् के अनंत जीवोंका उद्धार करेगा।

इसी अभिप्रायसे श्रीमान् चरणदासजी भगवत्के वही अंशावतार हुए हैं। श्रीमान्के पिता श्रीसुरलीधरदासजी बाल्यावस्थासे ही भगवद्भक्तिमें लवलीन रहते थे। जैसे जलमें कमल उत्पन्न हो कर जलसे जुदा रहता है उसी प्रकार मुरलीधरजीने जगद्व्यवहारोंको स्पर्श नहीं किया और चमत्कार यह कि, सदेह वैकुंठगामी हुए श्रोचरणदासजी महाराजकी पांच वर्षकी अवस्थामें डहरेग्राम नदीके निकट भीषेदव्यास नंदन जग-वंदन श्रीशुकदेवमुनिराजने दर्शन दिया। पश्चात १९ वर्षकी अव- स्थामें श्रीगंगातट स्थान शुकताल जहांपर राजा परीक्षित्को श्रीमद्भागवत कथा सुनाकर श्रीशुकदेवजी महाराजने कृतार्थ किया था। वहांपर दूसरी बार श्रीचरणदासजीको दर्शन दिये और विधिवत् दीक्षा देकर श्री चरणदामजीको अपना शिष्य कर भक्तियोग, ज्ञान, वैराग्या-दिसे पूर्ण कर तारन तरन बनाया। इसके पश्चात् श्रीचरणदासजीने इंद्रप्रस्थ अर्थात् दिल्लीस्थानमें विराजमान होकर अष्टांगयोग साधन-कर १४ वर्षकी समाधि लगाकर अष्टसिद्धि प्राप्तकर त्रिकालज्ञ तारनतरन महात्मा कहलाये। तदनन्तर दिल्लीसे चलकर श्रीयुगल-विहारीजीके दर्शनाभिलाषी श्रीवृंदावनधाम सेवाकुंजमें पहुँचकर श्रीयुगलविहारीजीके सह समाज सखी सुमसहित दर्शन पाया। श्रीकृष्णचंद्र आनंदकंद परमात्माने श्रीचरणदासजीको अपना अनन्य निष्काम प्रेमी भक्त समझकर वात्सल्यतापूर्वक निज हृदयसे लगाया और रासविलासका आनंद दिलाकर प्रेमभक्तिका प्रचार कर जीवोंका उद्धार करनेकी आज्ञा देकर अंतर्बान हुए।

तिस पीछे श्रीचरण-दासजीसे श्रीयुगलविहारीजीका वियोग न सहा गया और विरह-वियोगकी दशामें वंशीवटके नीचे मूच्छित होगये उसी समय श्रीशुकदेवजी तीसरी बेर वहीं प्रकट होकर दर्शन देकर समाधान कर वंशीवटके नीचे श्रीचरणदासजीके मस्तकपर निजहस्त कमलधर श्रीवृंदावनयुगल विहारीजीका प्रगट दर्शन कराकर विरहानिको शीतल कर इंद्रप्रस्थ जाकर जीवोंके उद्धार निमित्त भक्ति उपदेश करनेकी आज्ञा देकर अंतर्धान हुए । पश्चात् श्रीचरणदासजी दिल्ली आये।

परमशोभायमान श्रीजीका मंदिर सिद्धनकर विराजमान हुए और हरिगुरू आज्ञानुसार नवधा भक्ति द्वारा लक्षावधि जीवोंका भगवत्के सम्मुखकर भगवान्के दर्शन का साक्षात् कराया, श्रीचरणदासजीके सहस्रों संत, विरक्त, नेमी, प्रेमी, ज्ञानी, ध्यानी, सिद्ध समाधी हुए और भारतवर्षके उत्तमोत्तम तीर्थों तथा सप्तपुरी चारों धामोंमें जाकर विराजमान हुए और भगवद्भक्तिका विस्तार किया श्रीमान्के संत चरणदासीय वैष्णव कहलाए। इनकी शुकसंप्रदाय जगत् में विख्यात हुई और उस समय दिल्ली में मुहम्मदशाह बादशाह थे वे भी श्रीमहाराजके परम प्रभाव और अनेकानेक ईश्वरीय चमत्कार देखकर श्रीमहाराजमें भक्तिवश होकर नित्य दर्शन व सत्संगकी अभिलाषासे श्रीमान्के पास आने लगे। यहां तक कि, सहस्रा ग्राम श्रीमहाराज शिष्योंके नाम भगवत् संतसेवानिमित्त भेंट किये, वे अचतक चले आते हैं और उन ग्रामोंके सहस्रों फरमानशाही अब-तक मंदिर में मौजूद हैं, मुहम्मदशाहबादहशाहके अहदमें एक समय ईरान से चढकर दिल्लीपर नादिरशाह और उसके आगमनका वृत्तांत छः महीने पहिले लिखकर श्रीमान्ने मुहम्मदशाहको दे दिया, उस लेखके अनुसारही नादिरशाहने वर्ताव किया। इस वृत्तांतको नादिर-शाहने मुहम्मदशाहके मुखसे सुनकर श्रीमान्का दर्शन कर और चमत्कार पाकर इनको वलीअल्लाह और मकबूलपाकर पीरसुरशद माना और श्रीमान्के उपदेशसे आपने अपनी तमोगुणी वृत्ति व आसुरी बुद्धिका परित्याग कर ईरानको चला गया ! श्रीमानने अस्सी वर्षतक भूतलपर विराजकर भगवद्भक्ति प्रेम और परोपकारमें काल क्षेप किया, अंतमें भगवद् आज्ञानुसार स्वेच्छासे दिल्ली में योगाभ्याससे संवत् १८३९ विक्रममें दशवें द्वारको बेधन कर पांच भौतिक शरीरको त्याग परमधामको पधारे। इन स्वामीजीकी सहस्रों वाणी इस “श्रीगुरु भक्ति प्रकाश” ग्रंथमें विस्तार पूर्वक वर्णित् हैं। उसके अवलोकनेसे श्रीमान् स्वामिचरणदासजी महाराज का पूर्व प्रभाव मालूम हो सकता है।

॥ इति शुभम् ॥

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