Gadani Graha Set Of 3 Vols. (गदनिग्रहः 3 भागो में)
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Author | Dr. Indra Dev Tripathi |
Publisher | Chaukhambha Sanskrit Sansthan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2023 |
ISBN | 81-86937617 |
Pages | 828 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 7 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSS0015 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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गदनिग्रहः 3 भागो में (Gadani Graha Set Of 3 Vols.) प्राचीन संहिताओं के अनुसार वैद्य सोढल ने गदनिग्रह में कायचिकित्सा, शल्य, शालाक्य आदि विभाग करने की प्रथा को अपनाया किन्तु उसको निबाह नहीं सके। गदनिग्रह में अश्मरी आदि शल्यतन्त्र के रोग तो कायचिकित्सा में आ गए हैं किन्तु ग्रन्थि, अपची, सद्योव्रण नादि रोगों को सोढल ने शालाक्यतन्त्र के रोगों के पीछे लिखकर माधव एवं वृन्द के प्रसिद्ध क्रम में अन्तर कर दिया है। इनके गदनिग्रह के शल्याधिकार में शस्त्र-चिकित्सा का उल्लेख नहीं किया गया है।
इस ग्रन्थ में प्रयोगखण्ड (फार्माकोपिया भाग) पृथक् होने से औषध निर्माण में सुविधा हो गई है। प्रम्यकार ने यह विभाग सम्भवतः इसलिये किया है कि उस समय एक नाम से कई विधियाँ प्रचलित होंगी। उनमें से सोढल को जो योग मान्य हुए होंगे उन्होंने उनको अपना लिया है। जैसे फलघृत बोरोग में प्रसिद्ध है किन्तु सोढल ने एक फलघृत बालग्रह के लिये दिया है (प्र० स० १।३९३)। वाडवानल चूर्ण, अग्निमुख चूर्णं, वैश्वानर चूर्ण के कई पाठ इस ग्रन्य में दिए गए हैं जो भिन्न-भिन्न रोगों के लिये हैं। सम्भव है उस समय एक योग के नाम से कई नुस्खे प्रचलित रहे हों जिनको सोढल ने लिखना प्रारम्भ किया हो और साथ ही योगों को प्रक्रियानुसार कल्पनाभेद से अलग-अलग संग्रह भी कर दिया हो।
ग्रन्थ में कल्प के प्रयोग अधिक दिए गए हैं जो अन्य ग्रन्यों में नहीं मिलते, यथा-सुवर्णकल्प, कुंकुमकल्प तथा अम्लवेतस कल्प। अम्लवेतस नाम से जो वस्तु बाजार में प्राप्त होती है वह इनके वर्णन से सर्वथा पृथक है ‘तेषां फलेभ्यो निर्यासः सोऽम्लत्वादम्लवेतसः। इस पद्याधं में निर्यास को अम्लवेतस कहा गया है। ग्रन्थ में रसोनकल्प तथा पलाण्डुकत्व का संग्रह बड़े महत्त्व का है। सोढल का रसायन वाग्मट के आधार पर है किन्तु सोढल ने रसायन में तिल का जो प्रयोग किया है वह इसी ग्रन्य में मिलता है –
दिने दिने कृष्णतिलं प्रकुब्वं समश्नतः शीतजलानुपानम्। पोषः शरीरस्य भवत्यनल्पो दृढा भवन्ध्यामरणाच्च दन्ताः।।
इस ग्रन्थ का तिलप्रयोग काठियावाड़ में आज भी प्रसिद्ध है। इस प्रकार ग्रन्य की विशेषताओं को साधन वाले चिकित्सकों के लिये यह ग्रन्थ देखते हुए ज्ञात होता है कि स्वल्प अधिक उपयोगी है। अनुवादक ने इस ग्रन्थ की उपादेयता को और अधिक बढ़ा दिया है। अनुवाद में इसका भी ध्यान रखा गया है कि विद्वान् चिकित्सक एवं आयुर्वेद के शिक्षार्थी निदानांश में किए गए सविमर्श प्रयोगों के अनुवाद से लाभान्वित हो सकें। घृनादि-निर्माण में आने वाली कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक प्रकरण के आरम्भ में विशेष परिभाषाओं एवं सर्वसाधारण विधि का दिग्दर्शन करा दिया गया है।
नाप-तौल को सरल बनाने के लिये प्राचीन मान-परिभाषा के साथ आधुनिक नाप-तौल (ग्राम, लिटर) का समन्वयात्मक विवरण ग्रन्थ के अन्त में दिया गया है जिससे चिकित्सकों को यह सुविधा हो गई है कि इन बातों को जानने के लिये ग्रन्थान्तर का अन्वेषण न करना पड़े। अनेक अप्रचलित शब्दों तथा द्रव्यों का अन्तर्भाव होने के कारण इसके अनुवाद कार्य में बहुत श्रम करना पड़ा है। मूल ग्रन्थकार की वृत्ति को अक्षुण्ण रखते हुए इसमें सभी भावों का स्पष्टीकरण बहुत ही लगन के साथ किया गया है। अब इस एक ही ग्रन्य का अध्ययन करने से एवं अपने साथ रखने से चिकित्सक सफलता प्राप्त कर सकता है।
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