Gita Darshan Set of 8 Vols. (गीता दर्शन 8 भागो में)
₹7,100.00
Author | Osho |
Publisher | Divyansh Publication |
Language | Hindi |
Edition | 3rd edition, 2021 |
ISBN | 978-9384657635 |
Pages | 3788 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 8 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | DP0002 |
Other | Now box is not coming with the books |
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CompareDescription
गीता दर्शन 8 भागो में (Gita Darshan Set of 8 Vols.) ओशो अध्यात्म को ऐसी अनुभूति कहते है, जो अभिव्यक्त नहीं हो सकती। इशारे दिए जा सकते हैं, लेकिन इशारे अभिव्यक्तियां नहीं है। चांद को अंगुली से बताया जा सकता है, लेकिन अंगुली चांद नहीं है। गीता को जब मैंने कहा कि मनोविज्ञान है, तो मेरा अर्थ ऐसा नहीं है, जैसे कि फ्रायड का मनोविज्ञान है। फ्रायड का मनोविज्ञान मन पर समाप्त हो जाता है; उसका कोई इशारा मन के पार नहीं है। मन हो इति है, उसके आगे और कोई अस्तित्व नहीं है। गीता ऐसा मनोविज्ञान है, जो इसारा आगे के लिए करता है। लेकिन इशारा आगे को स्थिति नहीं है।
गीता तो मनोविज्ञान ही है, लेकिन आत्मा की तरफ, अध्यात्म की तरफ, परम अस्तित्व की तरफ, उस मनोविज्ञान से इशारे गए हैं। लेकिन अध्यात्म नहीं है। मील का पत्थर है; तोर का निशान बना है; मंजिल की तरफ इशारा है। लेकिन मील का पत्थर मील का पत्थर ही है, वह मंजिल नहीं है। कोई भी शास्त्र अध्यात्म नहीं है। हां, ऐसे शास्त्र है, जो अध्यात्म की तरफ इशारे है। लेकिन सब इशारे मनोवैज्ञानिक हैं। इशारे अध्यात्म नहीं हैं। अध्यात्म तो यह है जो इशारे को पाकर उपलब्ध होगा। और वैसे अध्यात्म की कोई अभिव्यक्ति संभव नहीं है; आंशिक भी संभव नहीं है। उसका प्रतिफलन भी संभव नहीं है। उसके कारण है। संक्षिप्त में दो-तीन कारण खयाल में ले लेने जरूरी हैं।
एक तो जब अध्यात्म का अनुभव होता है, तो कोई विचार चित्त में नहीं होता। और जिस अनुभव में विचार मौजूद न हो, उस अनुभव को विचार प्रकट कैसे करे। विचार प्रकट कर सकता है उस अनुभव को, जिसमें वह मौजूद रहा हो, गवाह रहा हो। लेकिन जिस अनुभव में वह मौजूद ही न रहा हो, उसको विचार प्रकट नहीं कर पाता। अध्यात्म का अनुभव निर्विचार अनुभव है। विचार मौजूद नहीं होता, इसलिए विचार कोई खबर नहीं ला पाता।
इसलिए तो उपनिषद कह-कहकर थक जाते हैं, नेति-नेति। कहते हैं, यह भी नहीं, वह भी नहीं। पूछे कि क्या है? तो कहते हैं, यह भी नहीं है, वह भी नहीं है। जो भी मनुष्य कह सकता है, वह कुछ भी नहीं है। फिर क्या है वह अनुभव, जो सब कहने के बाहर शेष रह जाता है?
बुद्ध तो ग्यारह प्रश्नों को पूछने की मनाही हो कर दिए थे, कि इनको पूछना ही मत। क्योंकि इनको तुम पूछोगे तो खतरे हैं। अगर मैं उत्तर न दूं तो कठोर मालूम पडूंगा तुम्हारे प्रति, और अगर उत्तर दूं तो सत्य के साथ अन्याय होगा, क्योंकि इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया जा सकता। इसलिए पूछना ही मत, मुझे मुश्किल में मत डालना। तो जिस गांव में बुद्ध जाते, खबर कर दी जाती कि ये ग्यारह सवाल कोई भी न पूछे। वे ग्यारह सवाल अध्यात्म के सवाल है।
लाओत्से पर जब लोगों ने जोर डाला कि वह अपने अनुभव लिख दे, तो उसने कहा, मुझे मुस्किल में मत डालो। क्योंकि जो मैं लिखूंगा, वह मेरा अनुभव नहीं होगा। और जो मेरा अनुभव है, जो में लिखना चाहता हूं, उसे लिखने का कोई उपाय नहीं है। फिर भी दबाव में, मित्रों के आग्रह में, प्रियजनों के दबाव में-नहीं माने लोग, तो उसने अपनी किताब लिखी। लेकिन किताब के पहले ही लिखा कि जो कहा जा सकता है, वह सत्य नहीं है। और सत्य वही है, जो नहीं कहा जा सकता है। इस शर्त को ध्यान में रखकर मेरी किताव पढ़ना।
दुनिया में जिनका भी आध्यात्मिक अनुभव है, उनका यह भी अनुभव है कि वह प्रकट करने जैसा नहीं है। यह प्रकट नहीं हो सकता। निरंतर फकीर उसे गूंगे का गुड़ कहते रहे हैं। ऐसा नहीं कि गूंगा नहीं जान लेता है कि गुड़ का स्वाद कैसा है, बिलकुल जान लेता है। लेकिन मूंगा उस स्वाद को कह नहीं पाता। आप सोचते होंगे, आप कह पाते है, तो बड़ी गलती में है। आप भी गुड़ के स्वाद को अब तक कह नहीं पाए। गूंगा ही नहीं कह पाया, बोलने वाले भी नहीं कह पाए। और अगर मैं जिद करूं कि समझाइए कैसा होता है स्वाद, तो ज्यादा से ज्यादा गुड़ आप मेरे हाथ में दे सकते है कि चखिए। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। लेकिन गुड़ तो हाथ में दिया जा सकता है, अध्यात्म हाथ में भी नहीं दिया जा सकता कि चखिए।
दुनिया का कोई शास्त्र आध्यात्मिक नहीं है। हां, दुनिया में ऐसे शास्त्र हैं, जिनके इशारे अध्यात्म की तरफ हैं। गीता भी उनमें से एक है। लेकिन वे इशारे मन के भीतर है। मन के पार दिखाने वाले हैं, लेकिन मन के भीतर हैं। और उनका विज्ञान तो मनोविज्ञान है; उनका आधार तो मनोविज्ञान है। शास्त्र को ऊंची से ऊंची ऊंचाई मनस है। शब्द की ऊंची से ऊंची संभावना मनस है। अभिव्यक्ति की आखिरी सीमा मनस है। जहां तक मन है, वहां तक प्रकट हो सकता है। जहां मन नहीं है, वहां सब अप्रकट रह जाता है।
तो जब मैंने गौता को मनोविज्ञान कहा, तो मेरा अर्थ नहीं है कि वाटसन के मनोविज्ञान जैसा मनोविज्ञान, कोई बिहेवियरिज्म, कोई व्यवहारवाद। या पावलोव का विज्ञान, कोई कंडीशंड रिफ्लेक्स। ये सारे के सारे मनोविज्ञान अपने में बंद है और मन के आगे किसी महा को स्वीकार करने को राजी नहीं है। कुछ तो मन की भी सत्ता स्वीकार करने को राजी नहीं है। वे तो कहते हैं, मन सिर्फ शरीर का ही हिस्सा है। मन यानी मस्तिष्क। मन कहीं कुछ और नहीं है। यह हड्डी-मांस-पेशी, इन सबका ही विकसित हिस्सा है। मन भी शरीर से अलग कुछ नहीं है।
गीता ऐसा मनोविज्ञान नहीं है। गीता ऐसा मनोविज्ञान है, जो मन के पार इशारा करता है। लेकिन है मनोविज्ञान ही। अध्यात्म-शास्त्र उसे मैं नहीं करूंगा। और इसलिए नहीं कि कोई और अध्यात्म-शास्त्र है। कहीं कोई शास्त्र अध्यात्म का नहीं है। अध्यात्म की घोषणा ही यही है कि शास्त्र में संभव नहीं है मेरा होना, शब्द में में नहीं समाऊंगा, कोई बुद्धि की सीमा-रेखा में नहीं मुझे बांधा जा सकता। जो सब सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है, और सब शब्दों को व्यर्थ कर जाता है, और सब अभिव्यक्तियों को शून्य कर जाता है-वैसी जो अनुभूति है, उसका नाम अध्यात्म है।
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