Goraksha Samhita (गोरक्षसंहिता)
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Author | Acharya Radhe Shyam Chaturvedi |
Publisher | Chaukhambha Surbharati Prakashan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2024 |
ISBN | 978-93-94829-89-3 |
Pages | 792 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0059 |
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गोरक्षसंहिता (Goraksha Samhita) गोरखनाथ-महार्णवतन्त्र, वर्णरत्नाकर, हठयोगप्रदीपिका, कौलावलीतन्त्र, श्यामारहस्य, सुधाकरचन्द्रिका आदि ग्रन्थों में गोरखनाथ का नाम उल्लिखित है। यह साक्षात् शिव के अंशावतार माने जाते हैं। इसीलिये नाथपन्थी लोग शिवगोरक्ष मन्त्र का जप करते रहते हैं। गोरक्ष शब्द के एक-एक अक्षर की व्याख्या इस प्रकार है-
ग = गुणवान्, र = रूपवान्, क्ष= अक्षय अर्थात् नित्य सत्तात्मक ब्रह्म। दूसरी व्याख्या के अनुसार-गो इन्द्रिय की, रक्ष रक्षा करने वाले अर्थात् इन्द्रियों पर नियन्त्रण करने वाले को गोरक्ष कहते हैं। सारांशतः ‘गो’ पद के जितने अर्थ हैं- गाय, पृथिवी, इन्द्रिय, सरस्वती, वाणी, माता, दिशा, जल आदि, उन सबके रक्षक। गोरक्ष शब्द अथर्ववेद, शिवपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, स्कन्दपुराण के केदारखण्ड, मार्कण्डेय-पुराण, महाकालसंहिता आदि में मिलता है। इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान् शिव ने चारो युगों में गोरक्ष के नाम से अवतार लिया।
इनके जन्म के विषय में यह कथा प्रसिद्ध है- एक बार एक स्त्री ने पुत्र की कामना से भगवान् शिव की उपासना की। भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर उसे भस्म दे दिया। उस भस्म के प्रति उसे विश्वास नहीं हुआ और उसने उस भस्म को गोबर के ढेर पर फेंक दिया। बारह वर्षों के बाद उस ढेर से एक पुत्र उत्पन्न हुआ; वही गोरखनाथ थे। एक बार मत्स्येन्द्रनाथ घूमते हुए उधर से निकले और उन्होंने उस शिशु को उठा लिया और अपने साथ ले जाकर उसे अपना शिष्य बनाया। तत्पश्चात् बारह वर्षों तक गायों को चराने एवं रक्षा करने के कारण वे गोरक्षनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुये। कुछ विद्वान् उन्हें गोदावरी-तट पर स्थित चन्द्रगिरि अथवा दक्षिण भारत में स्थित बडव देश को उनका जन्मस्थान मानते हैं। उनके जन्मस्थान के विषय में अन्य भी मत हैं।
गोरखनाथ के आचार-व्यवहार एवं पाण्डित्य से अनुमान लगाया जाता है कि ये ब्राह्मण थे। उन्हें प्राचीन तान्त्रिक परम्परा का पूर्ण ज्ञान था। बौद्ध-जैन आदि ने तान्त्रिक परम्परा का जो आडम्बरयुक्त निन्दनीय रूप समाज के सामने रखा था, गोरखनाथ ने उसका परिमार्जन कर तन्त्र का शुद्ध स्वरूप जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। चार सिद्धों की महादेवी द्वारा परीक्षा में वे ही उत्तीर्ण हुए। देवी ने अप्रतिम सुन्दरी का रूप धारण किया। तीन महात्मा उस देवी के रूप-सौन्दर्य पर मुग्ध हो गये; किन्तु गोरखनाथ ने उसे माता के रूप में स्वीकार किया और उसकी गोद में बालरूप में स्थित होकर उसका दूध पिया।
एक घटना का वर्णन अनावश्यक नहीं होगा। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ श्रीलङ्का की रानी के प्रेमपाश से मुक्त कराये गये, इसका वर्णन पहले किया जा चुका है। इसी क्रम में यह भी जानना अनुचित नहीं होगा कि कामिनी-मोह का त्याग करने के बाद भी मत्स्येन्द्रनाथ काञ्चनमोह का त्याग न कर सके। सुवर्णमुद्रा से गुँथी एवं भरी हुई कन्था को कन्धे पर रखकर चलते थे। गोरक्षनाथ ने जब अपने गुरु को उस रूप में देखा तो अपनी योगसिद्धि से उन्होंने अपने गुरु के समक्ष सुवर्ण का पर्वत खड़ा कर दिया। उस विशाल स्वर्णपर्वत को देखकर मत्स्येन्द्रनाथ ने स्वर्णकन्था का त्याग कर दिया।
एक और जनश्रुति के अनुसार एक बार गोरखनाथ नेपाल देश गये। वहाँ के राजा ने उनका अनादर कर दिया। क्रुद्ध होकर गोरखनाथ ने समस्त मेघमण्डल को एकत्रित किया और उसके ऊपर आसन लगा कर बैठ गये। फलतः नेपाल में बारह वर्षों तक वृष्टि नहीं हुई। इसके कारण जनता भूखों मरने लगी। परिणामस्वरूप राजा स्वयं अपनी जनता एवं मन्त्रिमण्डल के साथ मत्स्येन्द्रनाथ की शरण में गये। मत्स्येन्द्रनाथ को उनके साथ आता हुआ देखकर गोरक्षनाथ ने अपने गुरु को प्रणाम किया और उनके आदेशानुसार मेघों को आसन से मुक्त कर दिया; फिर वृष्टि हो गयी। इस विषय में उस स्थान का नाम लिखकर वहाँ एक शिला रखी गयी और उस पर यह श्लोक लिखा गया-
मृगस्थली स्थली पुण्या भालं नेपालमण्डले।
यत्र गोरक्षनाथेन मेघमालाऽऽसनीकृता।।
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