Hindi Bodhasar (हिन्दी बोधसार)
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Author | Shree Narhari |
Publisher | Dakshinamurty Math Prakashan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1st edition |
ISBN | - |
Pages | 433 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | dmm0021 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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CompareDescription
हिन्दी बोधसार (Hindi Bodhasar) लगभग सवा दो सौ वर्ष पूर्व की एक ऐसी ही अद्भुत कृति है ‘बोधसार’। श्रीनरहरि नामक दाक्षिणात्य विद्वान् इसके रचयिता प्रसिद्ध हैं किन्तु उनके बारे में अन्य कोई जानकारी मिलती नहीं, न अन्य रचनाएँ ज्ञात हैं। आत्मविश्वास इनमें असीम होने से इन्होंने स्वयं अपनी रचना के लिये कहा कि ऐसा ग्रंथ न हुआ, न होगा !
‘सिद्धार्थः सुगमार्थश्च विशेषैर्बहुभिर्वृतः।
ग्रन्थस्त्वेतादृशस्तात न भूतो न भविष्यति।।’
इस तरह के प्रबन्ध का आशय दुर्बोध होना स्वाभाविक है। अतीव सौभाग्य से रचयिताके ही शिष्य श्री दिवाकर ने ग्रन्थ का हृदय खोलती हुई मधुर व्याख्या उपलब्ध करायी जिससे बोधसार के सभी अध्येता सदा के लिये अधमर्ण हैं। श्री दिवाकर के भी ऐतिह्य का ज्ञान नहीं। व्याख्यारचना का काल उन्होंने स्वयं समाप्ति में अंकित कर दिया है जिससे यह भी दो सौ वर्ष पूर्व की ही है यह पता चलता है। प्रतिपद्य अवतरण और प्रतिपद अर्थकथन व्याख्या का सौष्ठव है। शीर्षक, उद्धरण तक का स्पष्ट तात्पर्य बता दिया गया है। निरालस्यभाव से धैर्यपूर्वक बनायी यह व्याख्या ग्रंथाभिप्राय समझने के लिये अनिवार्यतः पठनीय है।
बोधसार शाङ्कर सिद्धान्तानुसार उपनिषद्-अनुसारी रचना है। तथापि स्वतन्त्र प्रज्ञा से तत्त्व की व्याख्या द्वारा निष्ठा की अभिव्यक्ति इसकी विशेषता होने से प्रक्रियाओं का सहारा जरूर लिया गया है पर किसी प्रक्रिया का बन्धन भी है नहीं। निरुक्तियाँ प्रसंगानुसार ऊह की गयी हैं, स्वसन्दर्भ में अत्यन्त सटीक भी हैं पर उन पर अतीव आग्रह रखने की भी जरूरत नहीं है। साकार-भक्ति के विस्तार में मानवीय सम्बन्धों के आरोप से परमेश्वर-प्रेम को प्रोत्साहित किया जाता है यह सुविदित है। अभारतीय साहित्य में भी ईश्वर से सम्बन्ध स्थापितकर तदनुकूल प्रेम के विकास का वर्णन सुलभ है। निर्विशेष के प्रति भावनात्मक दृढता के लिये ऐसा प्रयास वेद में कहीं संकेतित तो है पर स्पष्टतः उल्लेख या विस्तार सरलता से नहीं मिलता। बोधसार में यह प्रयास उपलब्ध है एवं दाम्पत्य-सम्बन्ध के आरोप से घनिष्ठ अभेद की अनुभूति करने की प्रेरणा है। भेदबोधपूर्वक सम्बन्धद्वारक अभेदानुभव दाम्पत्य में प्रसिद्ध होने से ग्रंथकार ने इसी को प्रधान बिम्ब माना।
समर्पणपूर्वक अंगीकरण एवं स्वयं में विकसित कर अभिव्यक्ति यह चक्र भी इस रूपक से व्यक्त होने से इसका महत्त्व है। इस प्रकार के सन्दर्भ अभिप्रायानुसार ही समझने योग्य हैं, अनभिप्रेत ध्वनितार्थों की कल्पना व्यर्थ ही प्रयोजन से दूर ले जायेगी। इस ग्रंथ की टीकानुसारी व्याख्या हिन्दी में श्रीरामावतार विद्याभास्कर द्वारा रची गयी एवं सुप्रचारित रहकर भी अनेक दशाब्दियों से अनुपलब्ध है। निकटभूत में आँग्लभाषा में जेनिफर कोवर द्वारा कवितात्मक अनुवाद भी प्रकट किया गया है। संस्कृत टीका उदासीन साधु श्रीदयानन्द स्वामी जी के सम्पादकत्व में चौखम्बा संस्कृत बुक डिपो से ईस्वी सन् १६०५-६ में प्रकाशित हुई थी और जीर्णशीर्ण स्थिति में यदा-कदा उपलब्ध हो भी जाती है।
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