Hindi Dasharupak (हिन्दी दशरूपक)
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Author | Dr. Sudhakar Malviya |
Publisher | Chaukhamba Krishnadas Academy |
Language | Hindi & Sanskrit |
Edition | 2021 |
ISBN | 81-218-0187-7 |
Pages | 368 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0583 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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हिन्दी दशरूपक (Hindi Dasharupak) संस्कृत में नाट्घसाहित्य के शास्त्रीय विवेचन के क्षेत्र में धनञ्जय विरचित वाश्यक का महत्त्व विद्वत्समाज में सुविदित है। वस्तुतः लघुकाय इस ग्रन्थ ने अपने मूलभूत नाट्यशास्त्र से भी अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त की है, जिसका प्रमाण अध्ययन और अध्यापन में इसके व्यापक उपयोग में उपलब्ध होता है। यही कारण है कि दशरूपक के अनेक संस्करण उपलब्ध होते हैं। प्राथ्य और पाश्चात्त्य दोनों शिश्नाविधियों में उपयुज्य- मान इस ग्रन्थ का हिन्दी, तथा अन्य भारतीय भाषाओं एवं अंग्रेजी में भी अनुवाद तथा विवेचन समय-समय पर होते आ रहे हैं। डा० सुधाकर मालवीय की हिन्दी व्याख्या से युक्त प्रस्तुत संस्करण उसी उपयोगिता को ध्यान में रखकर निर्मित ग्रन्थों में नवीनतम संयोजन है।
नाट्य और काव्य का, कविकृति के रूप में एकत्व के होने पर भी, प्रस्थान मेद सुस्पष्ट है। काव्य कविमात्रनिर्भर है जब कि नाट्य अभिनय पर आघृत है। कवि आत्मविह्वल होकर काव्य की रचना कर सकता है, पर नाट्यकार को पदे-पदे प्रेक्षक-समाज का ध्यान रखना पड़ता है। यही कारण है कि नाट्य संबन्धी शास्त्र मात्र नाट्यरचना के नियमों का आकलन नहीं होता, उसमें अभिनेता, रङ्गमंच और प्रेक्षक-इन तीनों तत्त्वों की आकांक्षापूर्ति के साधनों की चर्चा अपेक्षित होती है।
भरतमुनि का नाट्यशास्त्र इसी दृष्टि से पूर्णाङ्ग तथा अद्वितीय है। ३७ अध्यायों में मुनि ने रङ्गमञ्ন্ত্র, অমি- नेता, अभिनय, नृत्यगीतवाद्य, प्रेक्षक, दश रूपक और रसनिष्पत्ति से संबन्धित सभी तथ्यों का विवेचन किया है। विश्व के इतिहास में विवेचन की पूर्णाङ्गता और सूक्ष्मता के कारण नाट्यशास्त्र अपनी कोटि का अद्वितीय ग्रन्थ है। भरत के नाट्यशास्त्र के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि काव्य केवल प्रतिभा की उपज हो सकती है पर नाट्य की सफलता कवि प्रतिभा के साथ कला के मञ्जुल समन्वय के बिना संभव नहीं है।
हमारी दृष्टि में, नाट्य के विकास का प्रथम चरण नाट्यशास्त्र में परिलक्षित होता है। इस चरण की विलक्षणता यह थी कि इसमें नाट्य के कला और शास्त्रीय ये दोनों पक्ष तुल्य महत्त्व रखते थे। कला से अभिनय संबन्धी सारे तत्त्व तथा शास्त्र से दशरूप बिधान संबन्धी नाट्यकार के लिए आवश्यक तत्त्वों से यहाँ तात्पर्य है। कालान्तर में ये दोनों पक्ष अलग हो गए और कलापक्ष को अभिनेताओं पर छोड़ दिया गया और शास्त्रपक्ष को विद्वानों ने अपना लिया।
ठीक किस समय यह हुआ यह कहना कठिन है, पर सृष्टीय दशम शती के अन्तिम चरण में, मालवराज मुञ्ज के राज्यकाल में (९७४-९९५) धनञ्जय द्वारा रचित दशरूपक शास्त्रपक्ष के स्वतन्त्र विकास का प्रथम और सबसे महत्त्वपूर्ण निदर्शन है। इस ग्रन्थ को नाट्यविकास के द्वितीय चरण का प्रमुख प्रतिनिधि कहना सर्वथा संगत है। रस को ध्वनि और अलंकार के रूप में पञ्चसन्धि नायक नायिका, अभिनय, वृत्ति आदि के महाकाव्य के उपादान के रूप में आलंकारिकों के विचारों ने इस द्वितीय चरण की भूमिका प्रस्तुत की थी।
इस दृष्टि से धनञ्जय का दशरूपक्र प्रधानतः नाट्यकार को केन्द्र में रखकर नाट्य का विवेचन प्रस्तुत करता है। वस्तु, नेता, रूपकभेद और रस इन चार विषयों को चार प्रकाशों में समाविष्ट कर धनञ्जय ने “तस्यार्थस्तत्पदैस्तेन संक्षिप्य क्रियतेऽञ्जसा” (१, ५) -अपनी यह प्रतिज्ञा पूर्ण की है। मौलिकता या पाण्डित्य प्रदर्शन उनका लक्ष्य नहीं है, अतः नाट्यशास्त्र के तत्तत् विषय संबन्धी मन्तव्यों का नाट्यकारों की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए यह समायोजन नितान्त उपयोगी तथा पाण्डित्यपूर्ण है। ‘व्याकीर्ण’ होने के ही कारण नाट्यशास्त्र को भी इस ग्रन्थ ने ग्रास सा कर लिया है।
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