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Kashi Ka Itihas (काशी का इतिहास)

855.00

Author Dr. Moti Chandra
Publisher Vishwavidyalay Prakashan
Language Hindi
Edition 6th edition, 2022
ISBN 978-93-5146-189-0
Pages 376
Cover Hard Cover
Size 17 x 4 x 25 (l x w x h)
Weight
Item Code VVP0020
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Description

काशी का इतिहास (Kashi Ka Itihas) आज से करीब पन्द्रह वर्ष पहले काशी का इतिहास लिखने की मुझे प्रेरणा हुई। अनेक कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी अपनी नगरी के भूतकालीन चित्र देखने का लोभ में संवरण न कर सका। सामग्री की तलाश में तो ऐसा मालूम पड़ता था कि नगरी के इतिहास की सामग्री विपुल होगी, पर जैसे जैसे काम आगे बढ़ता गया, वैसे वैसे पता चलने लगा कि नगरी का इतिहास एक ऐसे रूढ़िगत ढाँचे में ढल गया था जिसमें तीर्थ से सम्बन्धित धार्मिक कृत्यों और पठन पाठन का हो मुख्य स्थान था, इतिहास तो नगर के लिए गौण था, पर छानबीन करने से यह भी पता चला कि वाराणसी का तीर्थ रूप तो नगरी के अनेक रूपों में एक था। अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण वाराणसी का बहुत प्राचीन काल से व्यापारिक महत्त्व था। उसके तीर्थ तथा धार्मिक क्षेत्र के प्रधान कारण निःसन्देह वहाँ के व्यापारी रहे होंगे। इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारत से धर्म प्रचार में व्यापारियों का, चाहे वे हिन्दू, बौद्ध अथवा जैन कोई भी हों, बड़ा हाथ था। वाराणसी में तो हाल तक व्यापारियों के बल पर ही धर्म प्रचार और संस्कृत शिक्षा चल रही थी।

धर्म, शिक्षा और व्यापार से वाराणसी का घना सम्बन्ध होने के कारण नगरी का इतिहास केवल राजनीतिक इतिहास न रहकर एक ऐसी संस्कृति का इतिहास बन गया, जिसमें भारतीयता का पूरा दर्शन होता है। बनारस के सांस्कृतिक इतिहास की सामग्री सीमित होते हुए भी जहाँ पर संभव हो सका है, पुरातत्त्व, साहित्य और पुराने कागजातों, अभिलेखों इत्यादि के आधार पर नगर के बहुरंगी जीवन पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया गया है। समय के बदलते चलचित्र का स्पष्ट प्रभाव वाराणसी के इतिहास पर भी दीख पड़ता है, पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वाराणसी की संस्कृति का जो नक्शा बहुत प्राचीन काल में बना, वह अनेक परिवर्तनों के होते हुए भी मूल में जैसा का तैसा बना रहा। प्राचीनता की परिपोषक इस नगरी के प्रति लोगों का रोष हो सकता है तथा नगर को मध्यकालीन बनावट, गन्दगी और ठगहारियों के प्रति लोगों का आक्रोश ठीक भी है। पर इन सब कमजोरियों के होते हुए भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि बनारस उस सभ्यता का सर्वदा परिपोषक रहा है, जिसे हम भारतीय सभ्यता कहते हैं और जिसके बनाने में अनेक मत- मतान्तर और विचारधाराओं का सहयोग रहा है। यह नगरी हिन्दू विचारधारा की तो केन्द्रस्थली थी ही पर इसमें सन्देह नहीं कि बुद्ध के पहले भी यह ज्ञानका प्रधान केन्द्र थी।

अशोक के युग से वहाँ बौद्ध धर्म फूला फला। तीर्थंकर पार्श्वनाथ की जन्मस्थली होने के कारण जैन भी नगरी पर अपना अधिकार मानते हैं। इस तरह धर्मों और संस्कृतियों का पवित्र संगम बन जाने पर वाराणसी भारत के कोने-कोने में बसने वालों का पवित्र स्थल बन गयी। अगर एक सीमित स्थल में सारे भारत की झाँकी लेनी हो तो बनारस हो ऐसा शहर मिलेगा। विविध भाषाओं के बोलने वाले, नाना वेष-भूषाओं से सुसज्जित तथा तरह-तरह के भोजन करने वाले तथा रीति-रिवाज मानने वाले वाराणसी में केवल एक ध्येय यानी तीर्थ यात्रा के उद्देश्य से मालूम नहीं कितने प्राचीन काल से इकट्ठे होते रहे हैं और आज दिन भी इकट्ठे होते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से यात्रियों की यह श्रद्धा अन्धविश्वास और भेड़ियाधसान की श्रेणी में आ जाती है, पर श्रद्धा में तर्क का स्थान सौमित होता है। जो भी हो, यह तो निश्चित है कि बहुरूपी भारतीय सभ्यता में समन्वय की भावना स्थापित करने में काशी का बहुत बड़ा हाथ रहा है और शायद इसीलिए हिन्दुओं का वाराणसी के प्रति इतना आकर्षण है।

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