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Kavya Shastra (काव्यशास्त्र)

212.00

Author Dr. Bhagirath Mishra
Publisher Vishwavidyalay Prakashan
Language Hindi
Edition 30th edition. 2023
ISBN 978-93-5146-038-1
Pages 330
Cover Paper Back
Size 14 x 3 x 21 (l x w x h)
Weight
Item Code VVP0011
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Description

काव्यशास्त्र (Kavya Shastra) ‘काव्यशास्त्र’ का यह संस्करण अध्येताओं के बीच प्रस्तुत करते हुए मुझे सन्तोष और प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। इसका कारण यह है कि इन ग्रन्थ का पर्याप्त उपयोग इस विषय के अध्येताओं ने किया है। मेरी कल्पना थी कि सम्भवतः इस विषय के कतिपय विद्वानों का ध्यान इधर जायेगा। विशेष रूप से इसके परवर्ती संस्करणों की ओर तो विचार आवश्यक था, क्योंकि इसके द्वितीय और तृतीय संस्करणों में प्रथम संस्करण की अपेक्षा नई सामग्री जोड़ दी गई है। यह सामग्री विशेष रूप से साहित्यालोचन के पाश्चात्य मानदण्डों के रूप में है। पाश्चात्य साहित्यशास्त्र का अनुशीलन करने से हमें ऐसा प्रतीत होता है कि वहाँ काव्य की समग्र विवेचना के लिए वैसे सिद्धान्तों और मानदण्डों का निर्माण नहीं हुआ जैसा कि संस्कृत-साहित्य के अन्तर्गत हुआ है। फिर भी, कुछ पाश्चात्य वाद ऐसे हैं जिनका उपयोग हम काव्य की आलोचना के प्रसंग में कर सकते हैं। इनका महत्त्व ध्वनि, रस या अलंकार के समान काव्य के शास्त्रीय विवेचन में उतना नहीं है जितना कि काव्य को समझने और उसका मूल्यांकन करने के लिए एक दृष्टि प्रदान करने में है। इन पाश्चात्य वादों और सिद्धान्तों में कुछ तो सौष्ठववादी सिद्धान्त हैं जो काव्य के कलापक्ष को या रूपपक्ष को समझने की भूमिका प्रदान करते हैं। साथ ही कुछ दूसरे हैं जो हमें काव्य के वस्तुपक्ष का महत्त्व बताते हैं और अन्य कुछ ऐसे भी हैं जो काव्य में बिम्बित मनोभावों के विवेचन और विश्लेषण का मार्ग प्रशस्त करते हैं। पाश्चात्य काव्यशास्त्रीय वादों को इन तीनों पक्षों में रखकर देखना ही अधिक समीचीन होगा।

इन तीन पक्षों पर विचार करते हुए हमें ऐसा लगता है कि काव्य की समीक्षा करते समय इनमें से किसी एक का नहीं, वरन् तीनों पक्षों का उपयोग आवश्यक है। ये तीनों पक्ष साहित्य को समझने के लिए तीन दृष्टियाँ हैं। केवल एक दृष्टि देखने पर काव्य की सभी विशेषताएँ प्रकट नहीं होतीं और यह एक बहुत बड़ा कारण है जिससे हम किसी एकपत का खण्डन और दूसरे मत का मण्डन साहित्यशास्त्र में पाते हैं और खण्डन- मण्डन के दोनों ही पक्ष असमीचीन नहीं लगते। वास्तव में काव्य का वस्तुपक्ष भी उतना ही महत्त्व का है जितना कलापक्ष और भावपक्ष। इसी कारण से किसी रचना की समीक्षा करते समय अब हम वस्तुपक्ष का भी विवेचन करते हैं। यह वस्तुपक्ष उसकी कथावस्तु तथा सामाजिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक भूमिका के रूप में रहता है। आज हम किसी काव्यकृति का केवल कलापक्ष ही नहीं देखते, वरन् उसके अन्तर्गत प्रवहमान और प्रतिबिम्बित समाज, दर्शन और संस्कृति-सम्बन्धी विचारधारा को भी समझते हैं। अतएव साहित्य-समीक्षा के लिए इस वस्तुपक्ष का भी महत्त्व है। भारतीय और पाश्चात्य विचारकों में कुछ ही विचारक हैं जी इसको महत्त्व देते हैं। इस पक्ष को महत्त्व देनेवाले विशेष रूप से कतिपय रूसी चितक हैं जिन्होंने जीवन और प्रकृति को साहित्य-सृष्टि के लिए महत्त्वपूर्ण तथा प्रेरणा-स्रोत के रूप में स्वीकार किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में इसी कारण से ऐसे विचारों के मत को भी दिया गया है।

इसी प्रकार पाश्चात्य मनःशास्त्रियों के मतानुसार काव्य का सम्बन्ध मानसिक स्थिति से है। उनके विशिष्ट मतों के साथ-साथ यह स्वीकार करना पड़ता है कि काव्य की रचना एक मानसिक प्रक्रिया है। ऐसी दशा में उस मानसिक प्रक्रिया के निर्माण में जो सहायक तत्त्व हैं वे भी अपना महत्त्व रखते हैं। भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परा में भी इस पक्ष का निरूपण रससिद्धान्त के अन्तर्गत किया गया है। अतएव रस और भाव-निरूपण, कला और वस्तुपक्ष से इतर, काव्य-विवेचन का एक स्वतन्त्र पक्ष बन जाता है। इस ग्रन्थ में इस बात को भी स्पष्ट किया गया है।

इस प्रकार नवीन संस्करण के अन्तर्गत नयी सामग्री के रूप में इस बात को समाविष्ट किया गया है कि साहित्य के अध्ययन और काव्य के विवेचन के लिए उपर्युक्त तीनों पक्षों का ज्ञान आवश्यक है और ये तीनों पक्ष साहित्य को समझने के लिए तीन दृष्टियों का कार्य करते हैं। यहाँ यह भी कह देना आवश्यक है कि इनमें से किसी भी पक्ष को घटकर या बढ़कर नहीं कहा जा सकता। ऐसी दशा में काव्यशास्त्र के अध्ययन के अन्तर्गत इन सभी का अध्ययन वांछनीय है। ध्यान से देखने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि संस्कृत के काव्य-शास्त्री भी इस बात से अपरिचित नहीं थे। इसलिए उन्होंने अलंकार, वक्रोक्ति और ध्वनि के अन्तर्गत कलापक्ष के विवेचन के साथ-साथ रस और भावों का विवेचन भी किया है। इतना ही नहीं, काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में प्रबन्ध-काव्य के अन्तर्गत कथावस्तु और चरित्र को भी महत्त्व प्रदान किया गया है जो वास्तव में वस्तुपक्ष के अन्तर्गत हैं और इन्हीं सब बातों का विचार करके ही आचार्य भामह ने स्पष्ट कहा है कि-

न स शब्दो न तद्वाच्यं, न सा विद्या न सा कला।

जायते यन्न काव्यांगं अहो, भारो महान् कवेः ॥

काव्यशास्त्र के नवीन संस्करण में इन्हीं सब बातों का विचार करके भारतीय और पाश्चात्य काव्य-सिद्धान्तों तथा वादों को तीन विभागों में रखकर देखा गया है जिससे काव्य कला और जीवन पक्ष को लेकर योरप में चिरकाल तक चलनेवाले संघर्ष को भलीभाँति समझाया जा सके। मुझे आशा है कि यह परिवर्द्धित संस्करण इस विषय में रुचि रखनेवाले व्यक्तियों को अधिक उपादेय लगेगा।

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