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Kedar Khand Set of 4 Vols. (केदारखण्ड: 4 भागो में)

1,899.00

Author Acharya Vachaspati Dwivedi
Publisher Sampurnananad Sanskrit Vishwavidyalay
Language Sanskrit & Hindi
Edition 1st edition
ISBN 81-7270-049-0
Pages 2002
Cover Hard Cover
Size 14 x 13 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code SSV0028
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Description

केदारखण्ड: 4 भागो में (Kedar Khand Set of 4 Vols.) सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के शिक्षाशास्त्र विभाग के पूर्व आचार्य प्रो. वाचस्पति द्विवेदी द्वारा हिन्दी-भाषा में अनूदित एवं सम्पादित ‘केदारखण्ड’ नामक ग्रन्थ की प्रस्तावना लिखते हुए मुझे अतिशय आनन्दानुभूति हो रही है। विगत दशक में इस विश्वविद्यालय द्वारा ‘काशीखण्ड’ का प्रकाशन दो व्याख्याओं के साथ चार खण्डों में हुआ है, जिसकी आत्मस्वीकृति विश्वस्तर पर हुई है। यहां मणिकाञ्चनसंयोग उपस्थित हो रहा है कि ‘काशीखण्ड’ की भाति ‘केदारखण्ड’ का प्रकाशन भी इस विश्वविद्यालय के द्वारा चार भागों में सङ्कल्पित है, जिसका प्रथम भाग हिन्दी-व्याख्या के साथ विद्वत्समाज के करकमलों में प्रस्तुत हो रहा है। एतदर्य में प्रो. वाचस्पति द्विवेदी को भूरिश साधुवाद देता हूँ।

मुझे पुराण-वाङ्मय हमेशा आकर्षित करता रहा है। आत्मा पुराणं बेदानाम्’ का उद्घोष हमारी वैदिक अस्मिता का पुराणमुखेन रुपान्तरण रेखाङ्कित करता है। विद्वत्समुदाय भलीभांति अवगत है कि वैदिक वाङ्मय के समाप्त बोजप्ररोह पुङ्खानुपुद्ध भाव से पुराण-वाड्मय में पुष्पित, पत्तक्ति एवं पलित हुए है। जिस प्रकार ईश्वर के द्वारा सृष्टि का मूक्ष्म एवं स्थूलरूपेण द्विधा प्रवर्तन हुआ है, उसी प्रकार ऋषियों ने ईश्वरीय वेद-वाड्मय के सूक्ष्म बीजप्ररोहों को स्थूलरूपेण पुराणों में अवतरित किया है। ‘आत्मा पुराणं वेदानाम्’ यह वाक्य गम्भीरतर अर्थसन्दभों की ओर इङ्गित्त करता है। चाहे वह पुराणो का सर्ग- निरूपण हो, चाहे वह प्रतिसर्ग-निरूपण हो, चाहे वह वंशनिरुपण हो, चाहे वह मन्वन्तरनिरूपण हो तथा चाहे वह वंशानुचरित-निरूपण हो, सभी निरुपणों में वैदिक वाङ्मय के बीजप्ररोहों को अनुस्यूत पाया जा सकता है। पुराणों के पञ्चलक्षण-निरूपण में विश्रुत यह श्लोक अतिशय गूढार्थ सम्पुटित है-

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च ।

वंशानुचरितञ्चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ।।

इस श्लोक के साथ ‘आत्मा पुराणं वेदानाम्’ को समन्वित करते हुए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारतीय सनातनता के नवनवोन्मेष में पुराणों की कारणता स्वीकार करते समय वेद-वाङ्मय की कारणता स्वतः वरदान देती हुई-सी प्रतीत होती है।

ऐसे महनीय पुराण-वाङ्मय के महनीय घटक स्कन्दमहापुराण के ‘केदारखण्ड’ का हिन्दी-भाषा के साथ सम्पादन निश्चय ही प्रो. वाचस्पति द्विवेदी का उत्कृष्ट सारस्वत अनुष्ठान है, जिसके प्रथम भाग पर प्रस्तावना लिखते हुए मुझे अतिशय हर्षानुभूति हो रही है। प्रो. ष्विवेदी उस पण्डितपरम्परा के वाहक है, जिसे महामहोपाध्याय श्री हरिहरकृपालु द्विवेदी एवं विद्यावाचस्पति श्री ब्रह्मदत्त द्विवेदी जैसी मनीषी विभूतियों ने अलङ्कृत किया है। मैं उस विभूतिमयी पण्डितपरम्परा को नमन करता हूँ।

‘काशीखण्ड’ की भाँति ही ‘केदारखण्ड’ भी भगवान् केदारेश्वर की देवतात्मा विभूति की लीला के आख्यान का विश्वकोश है। भगवान् केदारेश्वर का लीलामय चित्रण प्रस्तुत खण्ड में देखा जा सकता है। पदे पदे उस देवभूमि की सुगन्धि से यह केदारखण्ड सुवासित एवं ओत-प्रोत है। इसके विश्वकोशात्मक स्वरूप के प्रस्फुटन में निम्नलिखित श्लोकों को उदाहृत किया जा सकता है-

अयोध्यायां महातेजा वशीकृतमहीतलः ।

शशास पृथिवीं सर्वां ससागरवनद्रुमाम् ।।

कोशलाः केरला वङ्गाः कोङ्कणा द्रविणास्तथा ।

तैलङ्गाश्च महाराष्ट्रा गुर्जराः कुरवः खसाः ।।

शाल्वाः कैष्किन्धकाः शोणा माद्राः पौण्ड्रास्तथापरे ।

उपायनानि चित्राणि ददुरस्मै नराधिपाः ।।

अयोध्याऽपि तदा देवी बभौ तेन महीभृता ।

रथ्यागोपुरवप्रैश्च शोभिता गिरिजे प्रिये ।। (केदार. २८।११-१४)

इन श्लोकों में रेखाङ्कित भारतीय सनातनता के ताना-बाना को पुङ्खानुपुङ- रूप से वेदवाङ्मय से पुराणात्मना प्रस्फुटित माना जाना प्रासङ्गिक होगा।

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