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Kerala Prasna Sangrah (केरलप्रश्नसंग्रह:)

85.00

Author Siyaram Shastri
Publisher Bharatiya Vidya Sansthan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 1st edition, 2018
ISBN 978-93-81189-51-1
Pages 120
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code BVS0213
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Description

केरलप्रश्नसंग्रह: (Kerala Prasna Sangrah) जिस प्रकार गहन अन्धकार में स्थित वस्तु को ज्योति के माध्यम से देखा जाता है, उसी प्रकार ज्यौतिष के द्वारा मानव के भविष्य (गहन अन्धकार कालस्थ) के विषय में ज्ञात हो जाता है। यही नहीं, मानव के आन्तरिक उद्वेग (चिन्तनीय विषय) के विषय में भी ज्ञात हो जाता है। शास्त्र का मुख शब्द, ज्यौतिष नेत्र, श्रोत्र वाणी, कल्प हस्त, शिक्षा वेद की नासिका तथा छन्दःशास्त्र दोनों चरण हैं। आकाश में जब तक सूर्य और चन्द्रमा रहेंगे तब तक ज्यौतिष शास्त्र की महत्ता बनी रहेगी। संहिता का अङ्ग प्रश्नशास्त्र भी है, जिसके द्वारा मानव के गुप्त व आन्तरिक विषयों को समझा जा सकता है। मानव के गुप्त विषयों को प्रश्नाक्षर, आलिङ्गित, दग्ध, ज्वलित, शान्त, अलक्त, गोरोचन प्रश्नादि के द्वारा ज्ञात किया जा सकता है। प्रातःकाले वदेत्पुष्पं मध्याह्ने तु फलं सायंकाले वदेन्नद्यः रात्रौ तु देवता वदेत्। मानव के आन्तरिक भाव को ज्ञात करने हेतु उक्त श्लोकानुसार पृच्छक द्वारा नाम का उच्चारण करवा करके तद्भावगत प्रश्न को ज्ञात किया जा सकता है। आय ज्ञान-हेतु प्रथम वर्णाक्षर, ध्रुवाङ्क में सम्पूर्ण प्रश्नाक्षर तथा अङ्ग विद्या स्पर्श में चेष्टा के आधार पर भविष्य के शुभाशुभ फल के विषय में ज्ञात किया जा सकता है।

मानवीय आन्तरिक गुप्त प्रश्नों को ज्ञात करने हेतु अनेक ग्रन्थों में यत्र-तत्र पद्धतियाँ दी गयी हैं, परन्तु सर्वोत्तम व यथार्थ प्रश्न-ज्ञान के लिए सर्वोपरि ग्रन्थ केरल-प्रश्न-संग्रह ही है। इसके रचनाकार के विषय में विभिन्न मतभेद है। केरल प्रश्न का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार हजार वर्ष पूर्व दक्षिण भारत में था। प्राकृत ग्रन्थ रिट्ठसमुच्चय के प्रणेता दुर्गदेव जी हैं, जो केरल शास्त्र के ज्ञाता थे। इनके गुरु संयमदेव थे, जो केरलशास्त्र के ज्ञाता थे। यद्यपि केरल शास्त्र के रचना एवं रचनाकार के विषय कोई निश्चित प्रमाण अद्यावधि अप्राप्त है; तथापि इस शास्त्र के प्रश्नों के संग्राहक मूलदेव जी हैं- यह स्पष्ट है।अस्तुः वर्तमानकालिकानुसार यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है; क्योंकि इसी ग्रन्थ के आधार पर अङ्क‌विद्या का सर्वाधिक प्रचलन पाश्चात्त्य देशों में हुआ है। अतः यह ग्रन्थ जनसाधारण तथा सामान्य ज्यौतिषियों के लिए अतीव उपयोगी है। इसके ज्ञान के इच्छुक व्यक्ति को आस्तिक, विवेकशील एवं सेवापरायण होना नितान्त आवश्यक है।

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