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Kundalini Shakti (कुण्डलिनी शक्ति)

Original price was: ₹475.00.Current price is: ₹404.00.

Author Arun Kumar Sharma
Publisher Chaukhamba Surbharati Prakashan
Language Hindi
Edition 2018
ISBN 978-93-81484-24-1
Pages 620
Cover Paper Back
Size 14 x 4 x 21 (l x w x h)
Weight
Item Code SUR0017
Other Arun Kumar Sharma

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Description

कुण्डलिनी शक्ति (Kundalini Shakti) कुण्डलिनी-शक्ति उस आदिशक्ति का व्यष्टि रूप है, जो समष्टि रूप में सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड में चैतन्य और क्रियाशील है। जहाँ तक कुण्डलिनी शक्ति की प्रसुप्तावस्था की बात है, तो उसके सम्बन्ध में यह बतला देना आवश्यक है कि मातृगर्भस्थ शिशु में वह जाग्रत् रहती है, लेकिन जैसे ही शिशु भूमिगत होता है, वह निद्रित हो जाती है। एक बात और है, वह यह कि मनुष्य की जाग्रत् अवस्था में कुण्डलिनी शक्ति प्रसुप्त रहती है और स्वप्नावस्था तथा सुषुप्ति अवस्था में तन्द्रिल रहती है। पहली अवस्था में उसका सम्बन्ध स्थूल-शरीर से और दूसरी अवस्था में सूक्ष्म शरीर से रहता है और जब साधना के बल से जाग्रत् और चैतन्य होती है तो उसका सम्बन्ध कारण-शरीर से हो जाता है।

जैसा कि स्पष्ट है कौल मत का मुख्य लक्ष्य है- ‘अद्वैत-लाभ’, जिसका तात्पर्य है जीवभाव से मुक्ति और अन्ततः परम निर्वाण। लेकिन अद्वैत-लाभ निहित है शरीरस्य शिव-शक्ति के मिलन में, सामरस्य में और योग में। इसी को कुण्डलिनी योग की संज्ञा दी गयी है। समस्त योगों में यही एक ऐसा योग है जो तंत्र के गुह्य आयामों पर आधारित है, इसीलिए इसे महायोग अथवा परमयोग कहा गया है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि पातञ्जलयोग जहाँ समाप्त होता है, वहाँ से कुण्डलिनी योग प्रारम्भ होता है।

कुण्डलिनी योग-साधना के मुख्य चार चरण हैं। प्रथम चरण में कुण्डलिनी शक्ति का जागरण, दूसरे चरण में कुण्डलिनी शक्ति का उत्थान, तीसरे चरण में चक्रों का क्रमशः भेदन और अन्तिम चौथे चरण में सहस्रार स्थित शिव के साथ सामरस्य अथवा महामिलन होता है। इन चारों चरणों की साधना योग-तंत्र की बाह्य और आभ्यन्तर-दोनों क्रियाओं द्वारा सम्पन्न होती है। कौल मत मुख्यतः दो भागों में विभक्त है, जिसे पूर्वकौल और उत्तरकौल कहते हैं। पूर्वकौल समयाचारी साधना-मार्ग है और उत्तरकौल वामाचारी साधना-मार्ग है। दोनों मार्ग में शक्ति के प्रतीक ‘योनि’ की पूजा है। जैसा कि कौलमतावलम्बियों का कहना है – ‘योनिपूजां विना पूजा कृतमप्यकृतं भवेत्’। लेकिन पहले मार्ग के अनुयायी श्रीयंत्र में रेखांकित योनि की पूजा करते हैं, जब कि दूसरे मार्ग के अनुयायी प्रत्यक्ष योनि के उपासक होते हैं। दोनों मार्ग की साधना का आचार पंचमकार है। मगर पहले में वह प्रतीक रूप में है और दूसरे में हैं प्रत्यक्ष रूप में।

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