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Mantra Maharnav Devi Khand (मंत्र महार्णव देवी खण्ड)

700.00

Author Dr. Surkant Jha
Publisher Rupesh Thakur Prashad Prakashan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 1st edistion, 2014
ISBN 172-542-2392548
Pages 1344
Cover Hard Cover
Size 14 x 7 x 21 (l x w x h)
Weight
Item Code RTP0080
Other Code - 172

 

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Description

मंत्र महार्णव देवी खण्ड (Mantra Maharnav Devi Khand) मेरे लिये यह अत्यन्त हर्ष की बात है कि आचार्य माधवकृत श्रीमन्त्रमहार्णव बहुप्रतीक्षित प्राचीन ग्रन्थ (देवी खण्ड) नये कलेवर में आपके हाथ में है। यह निश्चय ही गुरुकृपा प्रसाद से ही सम्भव हुआ। जहाँ तक इस ग्रन्थ की उपादेयता का सवाल है, तो यह जान लीजिए की आज का समाज, जिस प्रकार के दबाव व तनाव से ग्रस्त है, उससे उसे मात्र उसकी अपनी आध्यात्मिक उन्नति ही मुक्त कर सकती है। यह हर प्रकार से सबके लिये उपयोगी है, यह तो विश्वास से कहा ही जा सकता है। आज समाज आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों से कोशों दूर होता चला जा रहा है। अतः उसे अपने उन मूल्यों को अपने में पुनः स्थापित करने हेतु उक्त जैसे तन्त्र ग्रन्थ निश्चित ही उपादेयी है। इससे मानव का सर्वतोभावेन लाभ का मार्ग ही प्रशस्त हो सकता है।

इस समय प्रस्तुत ग्रन्थ तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र को उपलब्ध कराने वाला एक मात्र ग्रन्थ है, जिससे साधारण जन सीधे जानकारी कर योग्य गुरु के संरक्षण में साधना कार्य को सम्पन्न करने हेतु समुद्यत हो सकते हैं, साथ ही साधना से सम्बन्धित हर प्रकार की जानकारी, जो उक्त ग्रन्थ के पूर्व प्रकाशित (देव खण्ड) चार तरङ्गों में पूर्ण स्पष्टता व विस्तार से बताया गया है, का सीधा लाभ उन्हीं सामान्य, निरीह साधकों को प्राप्त हो सकता है। उन्हें दूसरों के ऊपर की निर्भरता की आवश्यकता ही नहीं। वस्तुतः तंत्र, मंत्र, यंत्र, योग, पूजा-अनुष्ठान, यज्ञ, आदि में एक विशिष्ट ऊर्जा-विज्ञान काम करता है; यह ब्रह्माण्डीय ऊर्जा संरचना ही इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, क्रिया, उसकी ऊर्जा तरंगों और उनसे निर्मित होने वाली भौतिक ईकाइयों की ऊर्जा संरचना का मूल स्रोत है।

इसी क्रम में महर्षि कपिल से लेकर शंकराचार्य तक असंख्य श्रेष्ठ पुरुषों ने केवल एक ही तत्त्व की बात स्वीकार किया है। इन महर्षियों के जीवनकाल में हजारों हजार साल का अन्तराल रहा है। वे सभी, जो तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, आदि से सम्पन्न भावुकता, कल्याणभाव से भरे महामानव थे, ब्रह्मतत्त्व का निरपेक्ष भाव से उपदेश किया। वेद में इसे ही तत्त्व, ब्रह्मतत्त्व, परमात्मा, पुरुष आदि कहा गया है और जिसे वेदान्त में ‘शून्य’ कहा गया है। इसी शून्य से ही यह संसार सकल चराचर सहित उत्पन्न हैं।

प्रस्तुत मन्त्रमहार्णव महाग्रन्थ के इस भाग की रचना स्त्रीवाचक देवताओं को लक्ष्य कर किया गया है। इसमें मुख्यतः सोलह तरङ्ग है। इस ग्रन्थ के तरङ्ग के क्रम से विषयों का अवबोधन इसकी विषय सूची से सहज ही होता है। इस प्रकार पूर्ण विश्वास से कहा जा सकता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ निश्चित ही अधिकतम ग्राह्य स्पष्ट भाषा, विशुद्ध विषयवस्तु और रोचक कलेवर के कारण आप सभी स्तर के पाठकों के लिये उपयोगी तो होगा ही साथ ही मन्त्रों, उनके न्यासों और ग्रन्थागत सभी प्रकार के श्लोकों को सुस्पष्टता प्रदान करने की भरसक चेष्टा से भी इस ग्रन्थ का उपयोग करना तुलनात्मक दृष्टि से सरल व सहज सिद्ध हो सकेगा। आपको ग्रन्थ देखने से सहज ही ज्ञात होगा कि लेखक ने कितना ईमानदार श्रम किया है।

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