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Naishkarmya Siddhi (नैष्कर्म्यसिद्धि:)

350.00

Author Sri Krishnananda Sagar
Publisher Acharya Krishnanand Sagar
Language Sanskrit & Hindi Translation
Edition 1st edition,1990
ISBN -
Pages 214
Cover Hard Cover
Size 25 x 2 x 18 (l x w x h)
Weight
Item Code IM0068
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Description

नैष्कर्म्यसिद्धि: (Naishkarmya Siddhi) श्रीभगवत्पाद शङ्कराचार्य के प्रमुख शिष्य श्रीमत्सुरेश्वराचार्य ने प्रस्तुत ग्रन्थरत्न “नैष्कम्वंसिद्धिः” का संस्कृत वाङ्मय में प्रणयन कर अद्वैत विचारों का कीतिस्तम्भ प्रस्थापित किया है। यह प्रामाणिक ग्रन्थ चार अध्यायों में विभक्त है। प्रथमाध्याय के अन्तर्गत अद्वैतज्ञानमार्ग के अधिकारी पुरुष का वर्णन करते हुए चिदात्मा का अज्ञान ही समस्त अर्थों का हेतु तथा प्रकरणगत विषयोपन्यास एवं प्रकरण से प्रतिपाद्य अनर्थ, अनर्थहेतु, पुरुषार्थ और पुरुषार्थहेतु का विवेचन किया है। ज्ञान ही मोक्ष का साधन है, कर्म नहीं है, ऐसा प्रशित करते हुए पतिज्ञान विषय की पुष्टिहेतु पूर्वपक्षरूप में ज्ञान को स्वीकार करते हुए कर्म को ही मोक्ष का साधन कहा है। केवल ज्ञान विधिप्राप्त नहीं है; अपितु कर्म-समुच्चय ज्ञान ही मोक्ष के प्रति हेतु साधन माना है, इस बात का खण्डन किया है। चतुबिध कर्मफल से मोक्षधर्म की प्राप्ति नहीं होती है; किन्तु आत्मनशेध से ही मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है।

ज्ञान कर्म के समान अविद्याजन्य होने पर भी अज्ञान का निवर्तक कैसे हो सकता है? इसका निराकरण किया है। कर्मानुष्ठान से अन्तःकरण की परिशुद्धि द्वारा वैराग्य और इससे सर्वकर्मसंन्यास का अधिकार, इस प्रकार से कर्म परम्परया मोक्ष के प्रति साधन बनता है, ऐसा उपसंहार करते हुए कर्ममात्र से मोक्ष सुसाध्य नहीं है और कर्म एवं ज्ञान के समुच्चय का खण्डन किया है। भेदाभेदवादी के पक्ष में भी उक्त दोनों के समुच्चय का सम्भव नहीं है और कमियों की युक्तियों का क्रमशः खण्डन तथा विधिप्रबोधित न होने के कारण वेदान्तवाक्यों का प्रामाण्य नहीं हो सकता है, इस आशंका का निराकरण, आत्मवस्तु परमार्थ-सिद्ध है, इसी कारण वह अविश्वास का अविषय है और उसमें कर्तृत्वादि धर्मों का अभाव है, केवल देहाभिमानी व्यक्ति का ही कर्म में अधिकार है, अभेददर्शी आत्मवेत्ता का अधिकार कर्म में नहीं है और ज्ञान द्वारा ही मोक्ष होता है, इस प्रकार से प्रथमाध्याय का उपसंहार आचार्य ने किया है।

प्रस्तुत ग्रन्थ अद्वैतदर्शन की एक अनुपम कृति है, ग्रन्थकार ने अनेक उद्धरण ‘उपदेशसाहस्री’ ग्रन्थ से उद्धृत किये हैं, इसमें ३६ कारिकाएँ बृहदारण्यकार्तिक की हैं। इसमें मोक्ष का साधन ज्ञान या कर्म है व दोनों का समुच्चय है, इस विषय में वातिककार ने सुदृढ़ युक्तियों से समाधान किया है और तीन प्रकार के समुच्चयवाद का खण्डन किया है। चार प्रकार से अन्वय-व्यतिरेकन्याय प्रस्तुत कर जीव एवं ब्रह्म की एकता का उपपादन करते हुए निःसन्दिग्ध अद्वैतमत को सिद्ध किया है और इस ग्रन्थ का नामकरण अन्वर्थक ही सिद्ध होता है। जैसा कि ‘निर्गत कर्म यस्मात् स निष्कर्म, निष्क्रमणो भावः नैष्कम्यंम्, तस्य सिद्धि निश्चयः’ अथवा ‘निष्कर्म परमब्रह्म परमात्मा, तद्विषयं विचारपरिनिष्पन्नं ज्ञानं नैष्कयं तद्रपां सिद्धिम्’ अर्थात् सर्वकर्मसंन्यासपूर्वक स्वस्वरूप का ज्ञान या विचारजन्य ब्रह्म से युक्त ज्ञान ही उपलब्धि है।

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