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Nalachampu (नलचम्पू: अथवा दमयन्ती कथा)

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Author Parameshvardin Pandey
Publisher Chaukhamba Surbharati Prakashan
Language Sanskrit Taxt and Hindi Translation
Edition 2024
ISBN -
Pages 622
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSP0571
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Description

नलचम्पू: अथवा दमयन्ती कथा (Nalachampu) संस्कृत साहित्य की धारा वैदिक काल से ही अजस्त्र गति से प्रवाहित होती रही है। सम्पूर्ण साहित्यशास्त्र तथा काव्य दो रूपों में मिलता है। किसी विषय का क्रमबद्ध गहन विवेचन शास्त्र कहलाता है। शास्त्र कालान्तर में पुरातन हो सकता है। परन्तु रागात्मक साहित्य के रूप में काव्य नित्य नूतन बना रहता है। रमणीय अर्थ प्रतिपादन करने वाला काव्य-पुरुष शब्द तथा अर्थ रूपी शरीर का निवास होता है जिसके प्राण ध्वनि, गुण माधुर्य ओज तथा प्रसाद, शृङ्गार अलङ्कारों तथा आचरण रीतियों द्वारा प्रकट होते हैं। काव्य दृश्य तथा अन्य दो प्रकार का होता है। दृश्य-काव्य के अन्तर्गत रूपक उपरूपक आदि गिने जाते हैं। श्रव्यकाव्य को प्रबन्ध तथा मुक्तक एवम् प्रबन्ध को भी महाकाव्य तथा खण्डकाव्य में विभक्त किया गया है। अध्य काव्य के लिए गद्य, पच तथा मिश्र शैलियों अपनायी जाती हैं। मिश्र शैली के अग्निपुराण में दो भेद कहे गये है- “ख्यात तथा प्रकीर्णं । यथा-मिश्रवपुरिति ख्यातं प्रकीर्णमिति च द्विधा (३३७, ३८) इति।” मिश्र अर्थात् गद्य-पद्यमय काव्य के करम्भक, विरुदावली जयघोषणा आदि अनेक विभेद भी कहे गये हैं। इसी इसी गद्य-पद्यमय मिश्रशैली में लिखा प्रबन्ध ‘चम्पूकाव्य’ कहलाता है।

चम्पू शब्द स्त्री प्रत्ययान्त चुरादि गण की चपि धातु से ‘उ’ प्रत्यय लगाकर “चम्पयति चम्पतीति वा चम्पूः” ब्युत्पन्न किया जाता है। परन्तु इस व्याख्या से चम्पू शब्द को वास्तविक अर्थ नहीं निकलता है। गति के गमन-शान-प्राप्ति तथा मोक्ष अर्थ है तदनुसार मोक्ष-सहोदर ‘आनन्द प्राप्त कराने वाली अब्यकाव्य की मिश्रशैली चम्पू कहलाती है। हरिदास भट्टाचार्य के मतानुसार “चमत्कृत्य पुनाति सहृदयाम् विस्मितीकृत्य प्रसादयति इति चम्पूः” अर्थात् गद्य-पद्य- युक्त प्रबन्ध काव्य की वह शैली जो सुपाठक के हृदय में चमत्कार उत्पन्न कर विस्मित करती तथा पवित्र करती है, चम्पू कहलाती है। द्वादश शताब्दी के हेमचन्द्राचार्य ने अपने काव्यानुशासन में साङ्का तथा सोच्छ्वासा चम्पूकाव्य को माना है। इनके मतानुसार चम्पूकाव्य में अङ्क तथा उच्छवास होने अनिवार्य हैं। परन्तु कतिपय चम्पूकाव्य ऐसे भी उपलब्ध हुए हैं जिनमें अङ्क अथवा उच्छ्वास होना अनिवार्य नहीं है यतः विभिन्न कवियों ने अपने चम्पूकाव्यों में उच्छ्वास से स्थान पर स्वेच्छया अध्याय विभाजन का नामोल्लेख किया है।

इस प्रकार अतिव्याप्ति तथा अव्याप्ति दोषों से रहित चम्पूकाव्य की आज तक कोई स्थिर परिभाषा नहीं हो सकी है। वस्तु, नायक, रस, छन्द एवं वर्णन शैली आदि अनेक विशिष्टताओं से युक्त होने के कारण मिश्रशैली में प्रवन्धकाव्य की उत्कृष्ट कृति ‘चम्पू’ कहलाती है – “गद्य- पद्यमयं अन्यं सम्बन्धं बहुवर्णितम्। सालङ्कृतैः रसैः सिक्तं चम्पूकाव्यमुदाहृतम् ॥” इति । सारांश में गद्यपद्यमिश्रित अन्य प्रबन्धकाव्य वर्णनप्रधान अलङ्कार-बहुल सरस होने पर चम्पूकाव्य कह- लाता है। गद्य-पद्यभय होकर भी पञ्चतन्त्रादि ग्रन्थों तथा दानपत्रादि को ‘चम्पूकाव्य’ नहीं माना जा सकता है यतः वह प्रबन्धकाव्य न होकर मुक्तककाव्य की श्रेणी में आते हैं।

नलचम्पू काव्य की कथा-वस्तु नलचम्पू की कथावस्तु महाभारत पर आधारित है। यद्यपि इसी कथा-वस्तु को लेकर अनेक कवियों ने विभिन्न रचनाएँ की परन्तु त्रिविक्रमभट्ट ने अपनी एक नवीन विचारधारा को ही नलचम्पू काव्य द्वारा प्रस्तुत किया है। नलचम्पू के जिस कथाभाग पर अवसान होता है वह दुःखान्तक है। पर कवि ने अपनी विशिष्ट वर्णन शैली द्वारा उसकी दुःखान्तता को भी सुखान्तता परिणत कर दिया है।

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