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Panchadashi Set of 4 Vols. (पञ्चदशी 1-4 भागो में)

1,019.00

Author Swami Maheshanad Giri
Publisher Dakshinamurty Math Prakashan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2023
ISBN -
Pages 1624
Cover Hard Cover
Size 18 x 8 x 24 (l x w x h)
Weight
Item Code dmm0031
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Description

पञ्चदशी 1-4 भागो में (Panchadashi Set of 4 Vols.) पंचदशी की सबसे प्राचीन टीका श्रीरामकृष्ण द्वारा रचित पददीपिका है। टीकाकार को ग्रंथकार का शिष्य माना जाता है जिससे इस टीका में कहे भाव निर्विवाद मूलकार को अभिप्रेत हैं। श्रीरामकृष्ण का उद्देश्य विस्तार का बिलकुल न होकर मूल वचनों का अभिप्राय व्यक्त करना ही है। यह टीका पर्याप्त भी है एवं सर्वाधिक सम्मानित भी है। दूसरी व्याख्या ‘पूर्णानन्देन्दुकौमुदी’ अच्युतराय मोडक की प्रशंसनीय कृति है। ये विद्वान् प्रायः दो सौ वर्ष पूर्व हुए एवं अद्वैतविषयक अनेक कृतियाँ इनकी प्रचलित हैं। कुछ का अस्तित्व इनकी ही रचनाओं में सूचित है जिनकी खोज अभी बाकी है। मोडकने यह मानकर व्याख्या की है कि अध्येता पददीपिका से ग्रंथार्थ समझ चुका है अतः मात्र वाक्यार्थ बताना इनका उद्देश्य नहीं, विशेष विचार ही व्यक्त करते हैं। अनेक स्थलों पर पाठविषयक टिप्पण महत्त्वपूर्ण हैं। प्रतिप्रकरण तात्पर्यविचार भी विशेष हैं। लिंगन सोमयाजी-कृत ‘कल्याणपीयूष’ भी एक संक्षिप्त टीका है जो प्रायः अन्वयबोधक टिप्पण-सी है तथापि पाठादि की दृष्टि से उपादेय है। हिन्दी में पीताम्बर पण्डित की व्याख्या सर्वमान्य है, अन्य अनेक अनुवाद सुलभ हैं जो ग्रंथार्थ व्यक्त करने में सक्षम हैं। अन्य भाषाओं में भी अनुवाद एवं व्याख्यान हैं तथा आधुनिक दृष्टि से अनुसन्धानात्मक ग्रंथ भी हैं।

वेदान्तशास्त्र के अध्ययन की परम्परा में पञ्चदशी सर्वाधिक आवश्यक एवं रुचिकर तो है ही, जितनी वेदान्तसिद्धान्त की समग्रता इसमें मिलती है उतनी किसी एक ग्रंथ में नहीं-यह कहने में संकोच नहीं है। शैली अतीव सुबोध तथा सटीक उदाहरणों से भरपूर है। इस पर अनेक संस्कृत टीकायें एवं हिंदी व्याख्यान सुलभ हैं, अन्य भाषाओं में भी इसे अनुवाद आदि से विस्तृत किया है। तथापि ग्रंथ की गरिमा के अनुरूप ‘प्रसन्न-गम्भीर’ एवं सीधे ही हृदय को भीतर तक छूने वाली प्रामाणिक विशद व्याख्या नितान्त अपेक्षित थी। आचार्य महामण्डलेश्वर श्री १०८ स्वामी महेशानन्द गिरि जी महाराज के मन में इस ग्रंथरत्न पर ऐसे व्याख्यान की रचना का संकल्प होने पर ईस्वी सन् २००४-६ में उन्होंने इस पर अपने चिन्तन प्रकट किये। इस कार्य में मध्य में शल्यक्रिया-प्रयुक्त व्यवधान भी आया पर यत्किंचित् सुविधा होते ही उन्होंने यह कार्य यथावत् सम्पूर्ण किया। कुछ प्रकरण स्वामी महानन्द गिरिजी ने आशुलेख से लिपिबद्ध किये तथा अधिकतर को पट्टलेखों के माध्यम से सुनकर श्री महेश पचौरी एवं श्रीमती वीणा पचौरी ने लेखरूप में उपस्थित किया। इन तीनों के घोर परिश्रम से ही यह व्याख्यान मुद्रणयोग्य बना। अन्य अनेक भक्तो ने विविध ढंगों से यह प्रकाशन सम्भव बनाया है।

महाराज श्री जी के व्याख्यानों का वैशिष्ट्य किसी से छिपा नहीं! ग्रंथकार से मानो तादात्म्य स्थापित कर साधिकार ग्रंथार्थ सोपपत्ति हृदयंगत कराना एवं साधक अपने जीवन में उसे कैसे उतारे इस के लिये दिशा-निर्देश देना उनकी महिमा रही। दुरूह विषय का भी उनका उपस्थापन अत्यन्त रुचिकर बना ही रहता है। ग्रंथमात्रका अर्थ नहीं, उसके बहाने वेदान्त का सार निरन्तर उपलब्ध कराना उनका ध्येय रहा। गीताव्यख्या ‘श्रीकृष्ण सन्देश’ की तरह यह पञ्चदशी व्याख्या भी निरुपम है इसमें संशय का लवलेश नहीं। इसके नियमित अध्ययन से प्रत्येक जिज्ञासु वेदान्त शास्त्र के सारे रहस्यों से अवगत तो होगा ही, आत्मकल्याण के लिये प्रयत्नशील होने में उसे अपूर्व ऊर्जा प्राप्त होगी यह निश्चित है। सभी आस्तिक आचार्य श्री के प्रसाद रूप इस ग्रंथरत्न से जीवन्मुक्ति का लाभ लें यही भगवान् श्रीदक्षिणामूर्ति से प्रार्थना है।

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