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Pran Chikitsa (प्राण चिकित्सा आध्यात्मिक उपचार विधि)

166.00

Author Prakhar Pragyanand Saraswati
Publisher Chaukhambha Sanskrit Sansthan
Language Hindi
Edition 2017
ISBN 978-8189798789
Pages 312
Cover Paper Back
Size 14 x 3 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSS0019
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Description

प्राण चिकित्सा (Pran Chikitsa) परमात्मा की दिव्य शक्ति सम्पूर्ण सृष्टि में पूर्ण रूप से व्याप्त है पर इन चर्म-चक्षुओं से उसको देखा नहीं जा सकता। हाँ, उसको अनुभव किया जा सकता हैं। इस दिव्य शक्ति को ही प्राण-शक्ति कहते हैं जो जड़-चेतन सभी में सूक्ष्म रूप से व्याप्त हैं। हमारा जीवन इसी प्राण-शक्ति पर पूरी तरह निर्भर करता है। इसी से हमारे सभी अंग सक्रिय रहते हैं तथा अपना-अपना कार्य करने में सक्षम होते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि सूक्ष्म रूप में व्याप्त प्राण-शक्ति के द्वारा हमारे स्थूल शरीर का संचालन एवं नियमन होता है। गोरक्षसंहिता के अनुसार मनुष्य शरीर में वृत्ति के कार्यभेद से इस प्राण को मुख्यतया दस भिन्न-भिन्न नामों में विभक्त किया गया है-

प्राणोऽपानः समानश्चोदान व्यानौ च वायवः।
नागः कूर्मोऽथ कृकरो देवदत्तो धनञ्जय।।

अर्थात् प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनञ्जय- ये दस प्रकार के वायु अर्थात् प्राण-वायु है। मुख्य पाँच प्राणों का विवरण सुविज्ञ पाठकों को त्वरित जानकारी प्रदान करेगा क्योंकि प्राण चिकित्सा में इनको सन्तुलित किया जाता है।

१. प्राण – यह हृदय से लेकर नासिकापर्यन्त शरीर के ऊपरी भाग में वर्तमान है। इसका कार्य श्वाँस को अन्दर ले जाना और बाहर निकालना, मुख एवं नासिका द्वारा गति करना, भुक्त अन्न-जल को पचाकर अलग करना, अन्न को मल तथा पानी को पसीना और मूत्र तथा रसादि को वीर्य बनाना है। ऊपर की इन्द्रियों का काम उसके आश्रित है। यह अनाहत चक्र द्वारा नियंत्रित होता है।

२. अपान – यह नाभि से लेकर पादतल तक अवस्थित है। इसका कार्य गुदा से मल, उपस्थ (पेडू) से मूत्र और अण्डकोश से वीर्य निकालना तथा गर्न आदि को नीचे ले जाना, कमर, घुटने और जाँघ को सक्रिय करना है। निचली इन्द्रियों का काम इसके अधीन है। यह स्वाधिष्ठान चक्र से नियंत्रित होता है।

३. समान – यह देह के मध्यभाग में नाभि से हृदय तक वर्तमान है। पचे हुये रस आदि को सब अंगों और नाड़ियों में बराबर बाँटना इसका काम है। यह मणिपुर चक्र से नियंत्रित होता है।

४. व्यान – इसका मुख्य स्थान उपस्थमूल से ऊपर है। यह सारी स्थूल एवं सूक्ष्म नाड़ियों में गति करता हुआ शरीर के सब अंगों में रक्त का संचार करता है। यह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है तथा स्वाधिष्ठान चक्र से नियंत्रित होता है।

५. उदान – यह कंठ में रहता हुआ सिरपर्यन्त गति करने वाला है। इसका कार्य शरीर को उठाये रखना है। यह विशुद्ध चक्र से नियंत्रित होता है।

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