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Pranamayam Jagat (प्राणमयं जगत)

50.00

Author Dr. Ashok Kumar
Publisher Yogiraj Publication
Language Hindi
Edition 5th edition, 2016
ISBN 81-900381-4-1
Pages 56
Cover Paper Back
Size 12 x 1 x 17 (l x w x h)
Weight
Item Code YP0005
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Description

प्राणमयं जगत (Pranamayam Jagat) संसार के समस्त धर्ममतों एवं सम्प्रदायों ने एकमत से घोषित किया है कि मन को स्थिर करना होगा। मन के स्थिर होने पर ही अभीष्ट सिद्धि संभव है। जिसे देव-देवियों के दर्शन की वासना है वह भी मन को स्थिर करने से ही प्राप्त होगा। जिसे तुरीय अवस्था लाभ करने की इच्छा है उसे भी मन को स्थिर करना होगा। किन्तु गीता की सिद्धि अन्य प्रकार की है। अर्थात् मन को निष्काम करना होगा, मन का मननत्व न रहे, इस अवस्था में पहुँचना होगा। कयोंकि जब तक मन है, संकल्प विकल्प रहेंगे ही, एवं इस कारण जन्म-मृत्यु के हाथ से छुटकारा पाने का कोइ उपाय नहीं है। इसके लिए भी मन को स्थिर करना आवश्यक है। सारांश यह है कि मन स्थिर हुए बिना कुछ भी नहीं होगा; यहाँ तक कि जागतिक कार्यों का सम्पादन भी सही रूप से नहीं हो पायेगा, मानुष अमानुष हो जायगा। अब प्रश्न यह है कि आखिर मन है क्या और उसे स्थिर करने का उपाय कया है? प्राण की चंचल गति को मन कहते हैं।

प्राण स्वभावतः स्थिर है। किन्तु नाना कारणों से अस्थिर अर्थात् चंचल हो जाता है। इस देहरथ की ध्वजा पर पवनकुमार हनुमान स्थिर वायुरूप में अवस्थित हैं। प्राणवायु सहस्रार में स्थिर रहता है, नीचे आने पर ही चंचल हो जाता है। शरीर के पाँच स्थानो पर उसी प्राण के पाँच नाम हैं प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। यह पंच प्राण यदि शरीर में समान रुप से स्थित रहें तो मन में किसी प्रकार की चंचलता नहीं रहती; नहीं तो फिर सामान्य कारणों से चंचल हो जाता है। जिस प्रकार इस शरीर में वायु, पित्त एव कफ ये तीनों यदि समभाव में रहें तो शरीर नीरोग रहता है। फिर सामान्य कारणों से विकार उत्पन्न हो जाता है। जैसे ठंड लगने पर कफ आश्रय कर लेता है इत्यादि। अतः सावधान रहना चाहिए ताकि इनमें विकार उत्पन्न न हो पायें। इसी तरह, पंच प्राण में भी विकार उत्पन्न न हो सके इसके लिए प्राण की साधारण सहायता लेनी पड़ती है।

मुख्य साधना है प्राणाया। प्राणायाम द्वारा प्राण एवं अपान वायु स्थिर होते हैं; नाभि क्रिया द्वारा समान वायु एवं महामुद्रा द्वारा उदान तथा व्यान वायु स्थिर होते हैं। इन साधनाओं के द्वारा पंचवायु स्थिर होने पर योनिमुद्रा द्वारा आत्म-साक्षातकार या आत्मदर्शन होता है। यही मनुष्य जीवन की परम सफलता है। इन साधनाओं के फलस्वरुप सहस्रार स्थित स्थिर वायु में मन स्थिति लाभ करता है और साधक की “मन शून्य” अवस्था होती है। आज पर्यन्त आविष्कृत जगत की समस्त साधनाओ में प्राणायाम श्रेष्ठ है। प्राणायाम कई प्रकार के हैं, उनमें सुषुम्नास्थित षटचक्र का प्राणायाम श्रेष्ठ है, क्योंकि इसके द्वारा प्राण एवं मन की क्रिया एक ही साथ होती है। जो साधक हैं वे जानते हैं कि जब तक इस प्राण की साधना मन के साथ मिलितरूप से की जाती है तब तक मन कभी भी अन्य दिशा में नहीं जाता। दीर्घकालिक अभ्यास से मन स्थिर हो जाता है और कोई चंचलता नहीं रह जाती। जिस प्रकार नदियों में गंगा, तीर्थो में काशी, मंत्रों में गायत्री व बीजों में प्रणव श्रेष्ठ हैं उसी प्रकार साधनाओं में प्राणायाम श्रेष्ठ है। इस बात को समस्त साधक मुनि-ऋषियों ने एक स्वर में स्वीकार कर लिया है क्योंकि इस साधन का प्रत्यक्षफल इसी जन्म में, इहकाल में तथा इसी देह में उपलब्ध किया जा सकता है।

मुनि ऋषियों ने योगशास्त्र में विस्तृत रुप से इसके संबन्ध में कहा है। कोई भी नई बात कहने के लिए नहीं है। उन्हीं मूल बातों को जो जिस तरह से परिवेशण कर सकता है, उसी में परिवेशणकारी की दक्षता है। ऋषियों के उन कथनों को श्रीमान अशोक ने जिस सुन्दर व सुचारु रुप से कहा है, उससे मैं अत्यन्त ही प्रसन्न हूँ। उन्होंने कम उम्र में तथा कम समय में यथेष्ट उन्नतिलाभ किया है; इससे यह प्रमाणित हो जाता है कि उनके पूर्व-संस्कार अत्यन्त ही अच्छे हैं। उनके इस प्रयास से साधक मात्र ही उत्साहित होंगे। मैं आशीर्वाद देता हूँ कि वे स्वस्थ शरीर में दीर्घ जीवन लाभ कर गन्तव्य स्थान में उपनीत हों।

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