Pratap Vijay (प्रताप विजय:)
₹40.00
Author | Bhola Shankar Mishr |
Publisher | Bharatiya Vidya Sansthan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1st edition, 2012 |
ISBN | 978-93-81189-18-4 |
Pages | 180 |
Cover | Paper Back |
Size | 12 x 2 x 18 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | BVS0174 |
Other | Dispatched in 3 days |
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प्रताप विजय: (Pratap Vijay) भारत का प्रत्येक देशभक्त इतिहास प्रसिद्ध राजस्थान के मेवाड़ नामक राज्य को आदरपूर्वक याद करता है, जिसके शासक महाराणा प्रताप थे। ये महाबली, दीनःदुखियों के कष्ट को दूर करने वाले, महाकालेश्वर एकलिङ्ग के उपासक, सनातन-धर्म के रक्षक, म्लेच्छ दुराचारी यवनों के विनाशक, गो- ब्राह्मणों के रक्षक और गरीबों के आश्रयदाता थे। इनके शासनकाल में भारत की पृथ्वी पर यवनों का शासन था। अतः ये बराबर सोचते थे कि हमारा यह देश किस प्रकार स्वतन्त्र होगा। अतः इन्होंने प्रतिज्ञा की कि “जब तक मेरा यह देश स्वतन्त्र नहीं होगा तब तक मैं सोने के बर्तनों में खाना नहीं खाऊँगा, महलों में नहीं रहूँगा और स्वर्णादि के पलङ्गों पर नहीं बैदूँगा अपितु पत्तों के दोने में भोजन करूँगा, पत्तों की कुटिया में रहूँगा और पृथ्वी पर खर-पात पर सोऊँगा”।
एक बार शोलापुर के महायुद्ध को जीतकर दिल्ली को जाता हुआ अकबर बादशाह का साला सेनापति मानसिंह, महाराणाप्रताप के घर में अतिथि बना। महाराणा ने अपने लड़के अमरसिंह से उसका पर्याप्त स्वागत करवाया, परन्तु वे स्वयं न तो उसके पास गये और न तो उसके बारे में जानने की इच्छा की। भोजन के समय भी प्रताप की अनुपस्थिति देखकर मानी मान कारण जानना चाहा। अमरसिंह ने कहा- “मेरे पिता सिर की पीड़ा से बहुत व्याकुल हैं अतः नहीं आ सके”। मानसिंह इसे अपना अपमान मानता हुआ बोला- “अमर ! तुम अपने पिता से जाकर कहो कि अब यहाँ वह औषधि आयेगी, जिससे उनके सिर में इस जन्म में कभी भी पीड़ा नहीं होगी”। उस समय महाराणा हँसते हुए बाहर निकले और धर्मभ्रष्ट मानसिंह को धिक्कारते हुए बोले- “तुम्हारे दादा ने अपनी पौत्री को अकबर से ब्याही, क्या तुम्हारा कुल इससे कलंकित नहीं हुआ ? फिर तुम मेरे साथ भोजन की इच्छा कैसे करते हो ? यह सुनकर मानसिंह फुफ्कारता हुआ दिल्ली नगर के लिए प्रस्थान करता हुआ प्रताप को युद्ध का निमन्त्रण दिया। पुनः वह मुगलों की विशाल चतुरङ्गिणी सेना लेकर चित्तौड़ दुर्ग को घेर लिया।
हल्दीघाटी नामक रणभूमि में भयंकर युद्ध हुआ। चेतक के ऊपर विराजमान महाराणा प्रताप सिंह ने सबके समक्ष अपने अद्भुत पराक्रम को दिखाया। चेतक ने भी उनके समान अपने पराक्रम को दिखाया। स्वयं महाराणा अपने बरछे की क्रूरता और निपुणता पर आश्चर्यान्वित थे। संयोग से अकबर- पुत्र सलीम रणाङ्गण में दीख पड़ा। महाराणा ने अपने चेतक को उधर घुमाया। चेतक सलीम के गजश्रेष्ठ के मस्तक पर चढ़ गया। उसके खुर के प्रहार से सलीम का हाथी पूर्ण वेग से भागा जिससे महाराणा के बरछे का वार खाली गया और सलीम जीवित बच गया। यह देखकर मुगल-सेना क्रोधाविष्ट हो महाराणा को घेर ली। महाराणा को विपत्ति में फँसा देखकर स्वामिभक्त “झालामाना” नामक मेवाड़-सामन्त ने उनके मुकुट को अपने शिर पर रख लिया। जिससे यवन-सेना भ्रमित हो झाला को राणा समझ कर उधर चल पड़ी। राणा बत्त निकले और चौदह हजार रघुवंशी वीर क्षत्रियों के साथ झालामाना वीरगति को प्राप्त हुआ।
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