Raghuvansh Mahakavyam (रघुवंशमहाकाव्यम् 13-14 सर्गः)
₹50.00
Author | Pt. Shree Jitendracharya |
Publisher | Bharatiya Vidya Prakashan |
Language | Sanskrit |
Edition | 2003 |
ISBN | - |
Pages | 128 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | TBVP0326 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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रघुवंशमहाकाव्यम् (Raghuvansh Mahakavyam)
संक्षिप्त कथासार (१३वाँ सर्ग) राक्षसराज रावण के वध के बाद मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम ने अग्निपरीक्षा में विशुद्ध सीताजी को स्वीकार कर तथा लङ्कन के राज्य पर रावण के भाई विभीषण को अभिषिक्त कर अपनी प्रिय पत्नी सीता, भ्राता लक्ष्मण, कपीश्वर सुग्रीव, भक्त हनुमान्जी, विचक्षण विभीषण तथा वानर एवं भालुओं के साथ पुष्पक विमान पर आरूढ होकर अयोध्या के लिए प्रस्थान करते समय मार्ग में सीता जी को तत्तत् स्थानों को दिखलाते हुए उनका मनोरम वर्णन किया था। श्रीराम ने पहले अपने पूर्वजों से संवर्द्धित फेनिल समुद्र, उसकी तटभूमि, वायु एवं मेघमार्ग का आकर्षक वर्णन करने के बाद उस दण्डकारण्य को दिखाया, जहाँ राक्षसों के भय से वल्कलधारी तपस्वियों ने पहले निवास करना छोड़ दिया था; फिर उस स्थान को बताया, जहाँ रावण द्वारा हरण के समय उनके पैर से गिरा हुआ एक नूपुर प्राप्त हुआ था और लताओं ने अपने पल्लवों को हिलाकर, मृगियों ने दक्षिण की तरफ मुँह कर सीता जी के जाने का संकेत किया था। बाद माल्यवान् पर्वत तथा उस पम्पासर का सुन्दर वर्णन किया है, जिसके जल की मनोहरता के कारण उनकी दृष्टि उसे छोड़ना नहीं चाहती थी। अनन्तर सारस पक्षियों से पूर्ण गोदावरी नदी, पञ्चवटी, स्वर्ग के राजा नहुष को च्युत करनेवाले अगस्त्यजी का आश्रम, शातकर्णि मुनि का पम्पासर नामक सरोवर, सुतीक्ष्ण मुनि, शरभङ्ग मुनि के आश्रम, गगनचुम्बी विचित्र चित्रकूट, निर्मल मन्दाकिनी नदी, अत्रि मुनि के शान्त तपःस्थान एवं अनुसूयाजी द्वारा लाई गई गङ्गाजी का वर्णन है। तीर्थराज प्रयाग में गङ्गा-यमुना के सङ्गम का मनोहर एवं साहित्यिक वर्णन करने के पश्चात् निषादराज की निवासभूमि शृङ्गवेरपुर के परिचय के अनन्तर धाई के रूप में मानसरोवर से निर्गत सरयू नदी का सुन्दर वर्णन किया है।
संक्षिप्त कथासार (१४वाँ सर्ग) अयोध्या के उपवन में विश्राम करने के बाद राम और लक्ष्मण ने आश्रय वृक्ष के भग्न हो जाने पर मुरझाई हुई दो लताओं के समान अपने पति राजा दशरथ के स्वर्गवास से शोचनीय अवस्था को प्राप्त दोनों माताओं-कौशल्या और सुमित्रा को एक ही साथ देखा। क्रम के अनुसार प्रणाम करने वाले उन दोनों पुत्रों की दोनों माताएँ आँसुओं से भरी आँखों से साफ-साफ नहीं देख पाई, किन्तु केवल पुत्र-स्पर्श के सुख को अनुभव से जान लिया। दोनों माताओं ने आनन्दजन्य शीतल आँसू एवं शोकजन्य गर्म आँसू को पोंछ कर दूर कर दिया। उन्होंने राम और लक्ष्मण के देह को राक्षसों के प्रहार से हुए पुराने घावों को नये के समान दया से स्पर्श करती हुई क्षत्रियाणियों को अभीष्ट वीरमाता कहलाना अच्छा नहीं समझा। बाद में सीताजी ने पतिदेव को कष्ट देने वाली, शुभलक्षणों से रहित ‘मैं सीता हूँ’ इस प्रकार कह कर उन दोनों के चरणों पर गिर कर समान रूप से अभिवादन किया। इस पर उन्होंने कहा-कल्याणी! उठो, लक्ष्मण के साथ तुम्हारे पति राम ने तुम्हारे पवित्र चरित्र’ से ही इस कठोर कष्ट को पार किया है।
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