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Rudra Ashtadhyayi (रुद्राष्टाध्यायी)

45.00

Author -
Publisher Gita Press, Gorakhapur
Language Sanskrit & Hindi
Edition 48th edition
ISBN -
Pages 224
Cover Paper Back
Size 21 x 2 x 14 (l x w x h)
Weight
Item Code GP0008
Other Code - 1627

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Description

रुद्राष्टाध्यायी (Rudra Ashtadhyayi) रुद्राष्टाध्यायी राम जी लोहिया, इसे शुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी भी कहते हैं। रुद्राष्टाध्यायी दो शब्द रुद्र अर्थात् शिव और अष्टाध्यायी अर्थात् आठ अध्यायों वाला, इन आठ अध्यायों में शिव समाए हैं। वैसे तो रुद्राष्टाध्यायी में कुल दस अध्याय हैं परंतु आठ तक को ही मुख्य माना जाता है। ग्रंथ (यह शुक्ल यजुर्वेद का भाग है।)

‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्’ – श्री मनु महाराज के अनुसार भगवान वेद ही सभी धर्मों का मूल है या सभी धर्मों से मिलकर बना है। वेद और उनकी विभिन्न संहिताओं में प्रकृति के कई तत्वों – आकाश, जल, वायु, भोर, शाम, आदि – और इंद्र, सूर्य, सोम, रुद्र, विष्णु, आदि देवताओं का वर्णन और स्तुतियाँ हैं। इनमें से कुछ ऋचाएँ त्याग-प्रधान हैं और कुछ प्रवृत्ति-प्रधान हैं। शुक्ल यजुर्वेद-संहिता के अंतर्गत ‘रुद्रष्टाध्यायी’ के रूप में भगवान रुद्र का विस्तृत वर्णन है। भक्त इस रुद्राष्टाध्यायी के मंत्र के जाप के साथ जल, दूध, पंचामृत, आम का रस, गन्ने का रस, नारियल का रस, गंगा जल आदि से शिव लिंग का अभिषेक करते हैं। शिव पुराण में सनक आदि ऋषियों के पूछने पर स्वयं शिव ने रुद्राष्टाध्यायी के मन्त्रों से अभिषेक का महत्व बताया है, उसकी प्रचुर स्तुति की है तथा महान फल का वर्णन किया है। धर्मशास्त्र के विद्वानों ने तदनुसार रुद्राष्टाध्यायी के छह अंग निर्धारित किये हैं।

शिव संकल्प सूक्त रुद्राष्टाध्यायिका के प्रथम अध्याय का हृदय है। दूसरे अध्याय का पुरुष सूक्त शीर्ष है और उत्तर नारायण सूक्त शिखा है। तीसरे अध्याय का अप्रतिरथ सूक्त ढाल है, चौथे अध्याय का मैत्र सूक्त नेत्र है और पांचवें अध्याय का शतरुद्रिय सूक्त शस्त्र कहा गया है। जिस प्रकार एक योद्धा युद्ध में अपने अंगों और हथियारों को तैयार करता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक साधक रुद्राष्टाध्यायिका के पाठ और अभिषेक के लिए तैयार होता है। अत: हृदय, मस्तक, शिखा, ढाल, नेत्र, शस्त्र आदि नाम दृष्टिगोचर होते हैं। यहां रुद्राष्टाध्यायी के प्रत्येक अध्याय की एक छोटी सी जानकारी दी गई है।

प्रथम अध्याय का पहला मंत्र ‘गणानां त्वा गणपतिः हवामहे’ बहुत प्रसिद्ध है। कर्मकांड के विद्वान इस मंत्र का प्रयोग भगवान गणेश के ध्यान और पूजा में करते हैं। इस मंत्र का प्रयोग ब्रह्मणस्पति के लिए भी किया जाता है। शुक्ल यजुर्वेद-संहिता के टीकाकार श्री उव्वटाचार्य और महीधराचार्य ने इस मंत्र का एक अर्थ अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की स्तुति के रूप में भी किया है।

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