Sachitra Hindi Kama Sutra (सचित्र हिन्दी कामसूत्र)
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Author | Dr. Ramanand Sharma |
Publisher | Chaukhambha Sanskrit Series Office |
Language | Hindi & Sanskrit |
Edition | 2018 |
ISBN | 978-81-218-0085-4 |
Pages | 218 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0084 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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सचित्र हिन्दी कामसूत्र (Sachitra Hindi Kama Sutra) परम्परा से माना जाता है कि प्रनापति ब्रहस ने मानवजीवन को नियमित और व्यवस्थित बनाने के उद्देश्य से, विवर्ग के साधनभूत, एक लाख अध्यायों वाले एक शाख का प्रवचन किया था। इस सुबिशाल संविधान के सहारे से मनु ने ‘मनुस्मृति’ की रचना की, बृहस्पति ने बार्हस्पत्य अर्थशात की रचना की और महादेव के अनुचर नंदी या नन्दिकेसर ने कामविषयक अंश को पृथक् कर कामसूत्र की रचना की। इन तीनों आचार्यों ने वस्तुतः उस संविधान का पृथक्करण किया जिससे उनकी रचनाएँ भिन्न नामों से प्रचलित हुईं।नन्दिकेश्वर के कामसूत्र में एक सहस्र अध्याय थे। उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु ने पाँच सौ अध्यायों में उसका मंक्षेप किया। इसके पश्चात् पांचालनिवासी आचार्य बाधव्य ने इस शास्त्र को साधारण, साम्प्रयोगिक, कन्यासम्प्रयुठक, भार्याधिकारिक, पारदारिक, वैशिक और औपनिषदिक इन सात अधिकरणों में विभक्त कर, एक सौ पचास अध्यायों में उसका संक्षेप किया।
नन्दिकेश्वर से लेकर बाभ्रव्य तक कामशास्त्र एक अखण्ड परम्परा के रूप में विकसित हुआ, किन्तु बाभ्रव्य द्वारा अधिकरणों में विभक्त कर देने और अधिकरणविशेष की अधिक माँग होने पर परवर्ती आचार्यों ने एक एक अधिकरण को लेकर स्वतन्त्र बिन्तन-मनन प्रारम्भ किया और उन पर स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना होने लगी। पटना की वेश्याओं के अनुरोध पर आचार्य दत्तक ने वैशिक भाग का स्वतन्त्र सम्पादन किया। तदनन्तर चारायण ने साधारण को, आचार्य सुवर्णनाभ ने साम्प्रयोगिक को, आवार्ष घोटकमुख ने कन्यासम्प्रयुक्तक को, आचार्य गीनदीय ने भार्याधिकारिक को, आचार्य गोणिकापुत्र ने पारदारिक को और आचार्य कुचुमार ने औपनिषदिक को बाधष्य के शाख से पृथक् कर उसका स्वतन्त्र विकास एवं सम्पादन किया। इन खण्डग्रन्थों में अलग अलग वर्गों की रुचि होना स्वाभाविक थी। उदाहरणार्थ, वेश्याओं को वैशिक से हो प्रयोजन था, तो नवविवाहित दम्पति साम्प्रयोगिक में विशेष रुचि लेते थे।
उच्छृंखल और निर्मर्याद पुरुषों के लिए पारदारिक ही सर्वस्व था, तो मंगेतर कन्याम्प्रमुक्तक को हो महत्व देते थे। इस प्रकार बाभ्रव्य का शाल अत्यधिक विशाल होने के कारण उपादेय नहीं था और अन्य खण्डग्रन्थों में विषय का समांगोपांग विवेचन उपलब्ध नहीं था, अतः महर्षि वात्स्यायन ने सभाज की आवश्यकता को ध्यान में रखकर संक्षित एवं पूर्ण शास्त्र की रचना का प्रयास किया। इसे उन्होंने स्वयं ही स्वीकार किया है ‘सर्वमर्थमत्येन ग्रन्थेन कामसूत्रमिदं प्रणीतम्। (१.१.१४) ‘कामसूत्र’ विषयवस्तु इस ‘कामसूत्र’ को रचना अधिकरणों में हुई है। प्रत्येक अधिकरण अनेक अध्यायों(१) दोनों हो ग्रन्थ अधिकरण, अध्याय और प्रकरणों में विभक्त हैं। (२) दोनों ही ग्रन्थों में अपने मत को पुष्टि के लिए आनुवंश्य श्लोक- प्राचीन प्रचलित श्लोक- उद्धृत किये गये हैं। (३) दोनों ही ग्रन्थों में परिशिष्ट रूप में औपनिषदिक प्रकरण रखा गया है जिसमें कथित अभद्र एवं निन्द्य योगों को आपद्ध के रूप में ही अपनाने का निर्देश दिया गया है और (४) दोनों ही ग्रन्थों में प्राचीन आचार्यों के मतों का दिग्दर्शन कराते हुए ‘इति कौटिल्यः’ या ‘इति वात्स्यायनः’ कहकर स्वमत की स्थापना की गयी है।
किन्तु इसी आधार पर अर्थशास्त्रकार और कामसूत्रकार को अभिन्न मान लेना उबित नहीं है। वस्तुतः ‘कामसूत्र’ ‘अर्थशाख’ की अपेक्षा परवर्ती ग्रन्थ है और उसमें शैली का अनुकरण भले ही किया गया हो, लेकिन कई मौलिक अन्तर भी हैं। उदाहरणार्थ, अर्थशालकार सर्वत्र निर्मम दृष्टिकोण अपनाते हैं। वे ‘इति कौटिल्यः’ ही नहीं लिखते, बल्कि, ‘नेति कौटिल्यः’ कहकर अपनी असहमति भी प्रकट कर देते हैं। अपनी व्यवस्था के प्रति असन्तोष या उसका उल्लंघन उन्हें स्वीकार्य नहीं है, जबकि वात्स्यायन उदार और लचीला दृष्टिकोण अपनाते हैं। वे’ इति वात्स्यायनः’ तो लिखते हैं, किन्तु ‘नेति वात्स्यायनः लिखने का साहस नहीं बटोर पाते। वे अनेक पूर्व मान्यताओं का उल्लेखमात्र करके छोड़ देते हैं, न उसका समर्थन करते हैं और न विरोध ही। अनेक अभद्र एवं अशिष्ट देशगत प्रवृत्तियों को उस देश में ही स्वीकार्य मान लेते हैं। वस्तुतः उनमें अर्थशास्त्रकार-सदृश निर्मम एवं दृङ् निषेध या विरोध का स्वर नहीं मिलता। दोनों ग्रन्थों की भौगोलिक एवं सामाजिक स्थिति में भी भित्रता है, आचार-विचार और मान्यताएँ भी किशित् परिवर्तित हैं, दोनों के नागरक भी कुछ विभिन्नता रखते हैं।
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