Sankshipt Padma Puran (संक्षिप्त पद्मपुराण) – 44
₹400.00
Author | Jai Dayal Goyenka |
Publisher | Gita Press, Gorakhapur |
Language | Hindi |
Edition | 40th edition |
ISBN | - |
Pages | 1008 |
Cover | Hard Cover |
Size | 19 x 5 x 27 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | GP0090 |
Other | Code - 44 |
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संक्षिप्त पद्मपुराण (Sankshipt Padma Puran) शास्त्रों में पुराणों की बड़ी महिमा है। उन्हें साक्षात् श्रीहरिका रूप बताया गया है। जिस प्रकार सम्पूर्ण जगत्को आलोकित करनेके लिये भगवान् सूर्यरूपमें प्रकट होकर हमारे बाहरी अन्धकारको नष्ट करते हैं, उसी प्रकार हमारे हृदयान्धकार -भीतरी अन्धकारको दूर करनेके लिये श्रीहरि ही पुराण-विग्रह धारण करते हैं। जिस प्रकार त्रैवर्णिकोंके लिये वेदोंका स्वाध्याय नित्य करनेकी विधि है, उसी प्रकार पुराणोंका श्रवण भी सबको नित्य करना चाहिये-‘पुराणं शृणुयान्नित्यम्’। पुराणोंमें अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारोंका बहुत ही सुन्दर निरूपण हुआ है और चारोंका एक-दूसरेके साथ क्या सम्बन्ध है-इसे भी भलीभाँति समझाया गया है। श्रीमद्भागवतमें लिखा है-
धर्मस्य ह्यापवर्ग्यस्य नार्थोऽर्थायोपकल्पते। नार्थस्य धर्मैकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृतः॥
कामस्य नेन्द्रियप्रीतिर्लाभो जीवेत यावता। जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभिः॥ (१।२।९-१०)
‘धर्मका फल है-संसार के बन्धनों से मुक्ति, भगवान्की प्राप्ति। उससे यदि कुछ सांसारिक सम्पत्ति उपार्जन कर ली तो यह उसकी कोई सफलता नहीं है। इसी प्रकार धनका फल है- एकमात्र धर्मका अनुष्ठान; वह न करके यदि कुछ भोगकी सामग्रियाँ एकत्र कर लीं तो यह कोई लाभकी बात नहीं है।
भोगकी सामग्रियोंका भी यह लाभ नहीं है कि उनसे इन्द्रियोंको तृप्त किया जाय; जितने भोगोंसे जीवन-निर्वाह हो जाय, उतने ही भोग हमारे लिये पर्याप्त हैं तथा जीवन-निर्वाहका – जीवित रहनेका फल यह नहीं है कि अनेक प्रकारके कर्मोंके पचड़ेमें पड़कर इस लोक या परलोकका सांसारिक सुख प्राप्त किया जाय। उसका परम लाभ तो यह है कि वास्तविक तत्त्वको भगवत्तत्त्वको जाननेकी शुद्ध इच्छा हो।’ यह तत्त्व-जिज्ञासा पुराणोंके श्रवणसे भलीभाँति जगायी जा सकती है। इतना ही नहीं, सारे साधनोंका फल है- भगवान्की प्रसन्नता प्राप्त करना। यह भगवत्प्रीति भी पुराणोंके श्रवणसे सहजमें ही प्राप्त की जा सकती है। पद्मपुराणमें लिखा है-
तस्माद्यदि हरेः प्रीतेरुत्पादे धीयते मतिः। श्रोतव्यमनिशं पुम्भिः पुराणं कृष्णरूपिणः॥ (पद्म०, स्वर्ग० ६२।६२)
‘इसलिये यदि भगवान्को प्रसन्न करनेका मनमें संकल्प हो तो सभी मनुष्योंको निरन्तर श्रीकृष्णके। अंगभूत पुराणोंका श्रवण करना चाहिये।’ इसीलिये। पुराणोंका हमारे यहाँ इतना आदर रहा है। वेदों की भाँति पुराण भी हमारे यहाँ अनादि माने : गये हैं। उनका रचयिता कोई नहीं है। सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी भी उनका स्मरण ही करते हैं। पद्मपुराणमें लिखा है-‘पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम्।’ इनका विस्तार सौ करोड़ (एक अरब) श्लोकोंका माना गया है- ‘शतकोटिप्रविस्तरम्।’ उसी प्रसंगमें यह भी कहा गया है कि समयके परिवर्तनसे जब मनुष्यकी आयु कम हो जाती है और इतने बड़े पुराणोंका श्रवण और पठन एक जीवनमें मनुष्योंके लिये असम्भव हो जाता है, तब उनका संक्षेप करनेके लिये स्वयं भगवान् प्रत्येक द्वापर युगमें व्यासरूपसे अवतीर्ण होते हैं और उन्हें अठारह भागोंमें बाँटकर चार लाख श्लोकोंमें सीमित कर देते हैं। पुराणोंका यह संक्षिप्त संस्करण ही भूलोकमें प्रकाशित होता है।
कहते हैं स्वर्गादि लोकोंमें आज भी एक अरब श्लोकोंका विस्तृत पुराण विद्यमान है। * इस प्रकार भगवान् वेदव्यास भी पुराणोंके रचयिता नहीं, अपितु संक्षेपक अथवा संग्राहक ही सिद्ध होते हैं। इसीलिये पुराणोंको ‘पंचम वेद’ कहा गया है-‘इतिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदम्’ (छान्दोग्य-उपनिषद् ७। १। २)। उपर्युक्त उपनिषद्वाक्यके अनुसार यद्यपि इतिहास-पुराण दोनोंको ही ‘पंचम वेद’ की गौरवपूर्ण उपाधि दी गयी है, फिर भी वाल्मीकीय रामायण और महाभारत जिनकी इतिहास संज्ञा है, क्रमशः महर्षि वाल्मीकि तथा वेदव्यासद्वारा प्रणीत होनेके कारण पुराणोंकी अपेक्षा अर्वाचीन ही हैं। इस प्रकार पुराणोंकी पुराणता सर्वापेक्षया प्राचीनता सुतरां सिद्ध हो जाती है। इसीलिये वेदोंके बाद पुराणोंका ही हमारे यहाँ सबसे अधिक सम्मान है।
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