Sanskrit Vangmay Ka Brihad Itihas Khand 3 (संस्कृत वाङ्गमय का बृहद इतिहास भाग-तीन आर्षकाव्य खण्ड)
₹750.00
Author | Acharya Baldev Upadhyaya |
Publisher | Uttar Pradesh Sanskrit Sansthan |
Language | Hindi |
Edition | 2nd edition, 2018 |
ISBN | - |
Pages | 872 |
Cover | Hard Cover |
Size | 23 x 4 x 15 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | UPSS0003 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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Sanskrit Vangmay Ka Brihad Itihas Khand 3 संस्कृत वाङ्मय का वृहद् इतिहास” का तृतीय खण्ड “आर्ष काव्य” के द्वितीय संस्करण का प्रकाशन हो रहा है, सन्तोष का विषय है। संस्कृत वाङ्मय के बृहद् इतिहास के अष्टादश खण्ड में भारत के प्राचीनतम् एवं नवीनतम् धाराओं में काव्य साहित्य आदि का सुन्दर वर्णन इस खण्ड के लेखकों द्वारा अत्यन्त ही परिश्रम पूर्वक सुव्यवस्थित तरीके से शास्त्र को ध्यान में रखते हुए पूर्ण किया गया है, इस कार्य हेतु मैं इस खण्ड के सभी लेखकों के प्रति आभार प्रकट करता हूँ।
भारतीय संस्कृत मानव जीवन को ही अनुष्ठानपरक बनाने की प्रेरणा प्रदान करती है। यही कारण ही भारतीय संस्कृति की अजस्रधारा को प्रवाहित करने वाली भाषा देववाणी संस्कृत के माध्यम से ही भारतीय जीवन-दर्शन में समस्त संस्कार सम्पादित किये जाते हैं। उ.प्र. संस्कृत संस्थान, संस्कृत भाषा, भारतीय संस्कृति और संस्कार को जन-जन से परिचित कराने के लिए कृत संकल्पित संस्थान है।
प्रस्तुत खण्ड जिस अर्थ में एक साहित्य के इतिहास से अपेक्षा की जा सकती है उसकी बहुत कुछ पूर्ति में समर्थ होगा ऐसा मुझे विश्वास है। इसके अध्याय के सभी लेखक साहित्य के विकास ग्रहण करते हुए काव्यरूपों तथा शैलियों से सुपरिचित ही नहीं, स्वयं निर्माण में दक्ष भी हैं। प्राचीन एवं आधुनिक युग के भारतीय काव्य साहित्य आदि को भी आत्मसात करते हुए अपनी गुणग्राहिणी दृष्टि का भी परिचय दिया है। इस कारण भी यह खण्ड उपयोगी होगा, ऐसा मेरा विश्वास है। इस खण्ड की लोकप्रियता के कारण ही द्वितीय संस्करण का प्रकाशन हो रहा है।
संस्कृत के क्षेत्र में अब भी स्वतन्त्र आधुनिक समीक्षा दृष्टि का विकास हुआ हो, यह मेरे संज्ञान में नहीं है, यदि नहीं हुआ हो तो प्रबुद्ध संस्कृतज्ञ समाज को इस दिशा में ध्यान देना चाहिए। प्राचीन आचार्यों के द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलते हुए आज के युग में, प्रकाश में आ रहे साहित्य का पर्यालोचन अवश्य करना चाहिए। तभी साहित्य को गति और दिशा मिल सकेगी। अन्यथा उसके गतिहीन तथा दिशाहीन होने का भव बना रहेगा।
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