Shad Darshan Samucchaya (षड्दर्शनसमुच्चय:)
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Author | Rudra Prakash Darshan Keshari |
Publisher | Chaukhambha Krishnadas Academy |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2020 |
ISBN | 978-81-218-0093-5 |
Pages | 240 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0059 |
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षड्दर्शनसमुच्चय: (Shad Darshan Samucchaya)
कणादस्याक्षपादस्य व्यासस्य कपिलस्य च। पतञ्जलेजॅमिनेश्च दर्शनानि भवन्ति षट् ॥
इस उक्ति के अनुसार वेद की प्रामाणिकता को स्पष्टतया स्वीकार करने वाले न्याय, वैशेषिक, वेदान्त, सांख्य, योग और मीमांसा को ही यद्यपि सामान्यतः बड्दर्शन के रूप में स्वीकार किया जाता है, लेकिन प्रकृत ग्रन्थ के प्रणेता जैनविद्वान् हरिभद्र सूरि एवं मणिभद्र तथा गुणरत्नसदृश टीकाकार उपर्युक्त संख्या को यथावत् म मानकर उसमें संशोधन करते हुए विभिन्न मत मतान्तरों का यथासम्भव अन्तर्भाव करके बौद्ध, न्याय, सांख्य, जैन, वैशेषिक तथा मीमांसा को हो षड्दर्शन के रूप में मान्यता प्रदान करते हैं। इसकी स्पष्ट घोषणा करते हुए हरिभद्र सूरि अपने प्रकृत ग्रन्थ ‘षड्दर्शनसमुच्चय’ में कहते भी हैं —
दर्शनानि षडेबात्र मूलभेदव्यषेक्षया। देवतातत्त्वभेदेन ज्ञातव्यानि मनीषिभिः ।।
बौद्धं नैयायिकं सांख्यं जैनं वैशेषिकं तथा। जैमिनीयं च नामानि दर्शनानाममून्यहो ।। २-३ ।।
फिर भी जैन दर्शन का षड्दर्शन में समावेश तत्कालीन स्थितियों को देखते हुए एक दुराग्रह-मात्र ही प्रतीत होता है, क्योंकि मणिभद्र के अनुसार हरिभद्रपठित छ के अतिरिक्त किसी सातवें को तत्कालीन लोक स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं था; इसीलिए हरिभद्र ने जैन के साथ-साथ बौद्ध को भी षड्दर्शन में समाविष्ट कर दिया और योग तथा वेदान्त का उल्लेख करना भी आवश्यक नहीं समझा। इसका कारण यह नहीं था कि ये जैन विद्वान् सांख्य अथवा वेदान्त दर्शन से अपरिचित थे, बल्कि मूल कारण यह था कि सांख्य तथा वेदान्त के समक्ष साधना तथा सिद्धान्त दोनों से प्रतिद्वन्द्विता में इनके मत के दुर्बल होने का भय इन लोगों के भीतर विद्यमान था। इस प्रकार षड्दर्शन के रूप में सांख्य ओर वेदान्त का उल्लेख न कर उनके स्थान पर जैन और बौद्ध को स्थापित करने का जैनविद्वानों का प्रयास मानवीय मन की दुर्बलता का ही परिचायक है, अत्य कुछ नहीं।
षड्दर्शनसमुच्चय में हरिभद्र सूरि ने विवेचनीय दर्शनों के जिन विषयों का जहाँ पर निरूपण किया है वहाँ उनके प्रति अपनी पूर्ण निष्ठा प्रर्दाशत की है। उनकी कतिपय कारिकाओं के तो शब्द भी उन-उन दर्शनों के आचार्यों द्वारा कथित शब्दों से सर्वांशतः या अंशतः साम्यता लिये हुए हैं; जैसे प्रत्यक्ष-लक्षण को निरूपित करने वाली षड्दर्शनसमुच्चय की दशवीं कारिका “प्रत्यक्षं कल्पनापोढ़मभ्रान्तं तत्र बुध्यताम्” बौद्धदर्शन के आचार्य दिङ्नागकृत प्रमाणसमुच्चय में पठित “प्रत्यक्षं कल्पनादोढं नामजात्याचसंयुतम्” से अत्याधक साम्य रखती है। इसी प्रकार हरिभद्रप्रदत्त नैयायिकों का प्रत्यक्षलक्षण “तनेन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमव्यभि चारिकम्। व्यवसायात्मकं ज्ञानं व्यपदेशविजितम्। प्रत्यक्षम्” तो न्याय दर्शन के आचार्य अक्षपादप्रदत्त प्रत्यक्षलक्षणप्रतिपादक सूत्र “इन्द्रियार्थसन्निकर्वोत्पन्नं ज्ञानमध्यपदेश्यमव्यभिचार व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्” का श्लोकबद्ध रूपमात्र ही भासित होता है। इन समानताओं को देखने से यह स्पष्ट होता है कि विविध दर्शनों के सिद्धान्तप्रतिपादन में हरिभद्रसूरि ने पूर्णतः निष्पक्षता का परिचय दिया है और किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह से वे कथमपि आक्रान्त नहीं रहे हैं।
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