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Shiv Sankalpa Sukta (शिवसंकल्पसूक्त)

275.00

Author Swami Maheshanad Giri
Publisher Dakshinamurty Math Prakashan
Language Hindi
Edition 2017
ISBN -
Pages 552
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code dmm0047
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Description

शिवसंकल्पसूक्त (Shiv Sankalpa Sukta) वेद सनातन शास्त्र है, उसका उपदेश शाश्वत अपरिवर्तनीय है। आधुनिक विद्याएँ मात्र तात्कालिकता पर टिकी है, न जाने कब कोई नई खोज, सोच उन्हें मौलिक रूप में ही बदल दे। एक जीवन के लिए ही जिन पर निर्भर न रहा जा सके, जन्म-जन्मान्तर और पारमार्थिक मोक्ष के लिये उन पर क्या भरोसा किया जाये। सामान्य जीवन भी स्थिर सिद्धान्तों व नियमों के अनुसार हो शान्ति से जिया जा सकता है न कि हमेशा इस आशंका में कि न जाने आज का किया कहीं कल गलत न निकल आये। विज्ञान आदि समसामयिक पद्धतियों के इस नित्य प्रयोगात्मक दृष्टिकोणवश मनुष्य मानो किसी स्थायी बोझ से दबा रहता है जो एक अनावश्यक नया बंधन है। विकास स्वातन्त्र्योन्मुखता को कहा जाता है किंतु वर्तमान प्रवाह इससे सर्वधा विपरीत उपलब्ध हो रहा है।

अविचारित परतन्त्रताओं की बढ़ोतरी व्यक्ति और समाज को असहाय बनाती जा रही है। स्वतन्त्रता-लाभ के लिये क्रमबद्ध साधना आवश्यक है जो निश्चित लक्ष्य और उसके निश्चित उपायों पर निर्भर है। यह तभी संभव है जब निश्चित शास्त्र का अनुसरण किया जाये। इस आवश्यकता पूर्ति के लिये वेद ही निर्विवाद अवलम्ब है। अनादि काल से इसके अनुयायी इसके निर्देशन में इहलोक-परलोक सुधारते रहे हैं एवं परम कल्याण पाते रहे हैं। इसकी आजतक अटूट परंपरा रही है तथा इसके तात्पर्य पर गंभीर चिन्तन करने वाले असंख्य सुप्रतिष्ठत विद्वान् होते रहे हैं जिन्होंने शब्द और युक्ति के सहारे वेदार्थ सुस्पष्ट किया है।

शास्त्र से परिचय सत्संग से होता है जिसका स्वाभाविक प्रकार है प्रवचन-श्रवण। आचार्य महामण्डलेश्वर श्री स्वामी नृसिंहगिरिजी महाराज ने राजधानी दिल्ली में यमुनातट पर संवत् २००८ (सन् १९५१) में सत्संग के उद्देश्य से श्री विश्वनाथ संन्यास आश्रम स्थापित किया जहाँ प्रतिदिन वेदान्त शास्त्रों का व्याख्यान सम्पन्न हो रहा है। आचार्य महामण्डलेश्वर श्रीस्वामी महेशानन्द गिरिजी महाराज ने सन् १९५७ से २००८ तक वहाँ प्रतिवर्ष प्रवचन किये जिनमें अनेक लिपिबद्ध हो प्रकाशित भी हुए। सन् १९६९ के चातुर्मास्य में उन्होंने श्रीशिवसंकल्पसूक्त की व्याख्या व्यक्त की जिसमें इस वैदिक सन्दर्भ का कर्म और अध्यात्म दोनों में उपयोग स्पष्ट किया।

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