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Shri Radha Madhav Chintan (श्रीराधा माधव चिन्तन)

150.00

Author Hanuman Prasad Poddar
Publisher Gita Press, Gorakhapur
Language Sanskrit & Hindi
Edition 24th edition
ISBN -
Pages 958
Cover Hard Cover
Size 14 x 4 x 21 (l x w x h)
Weight
Item Code GP0109
Other Code - 49

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Description

श्रीराधा माधव चिन्तन (Shri Radha Madhav Chintan) भक्ति-रसमें व्रज-रसकी माधुरी अनुपमेय है। भगवान् श्रीव्रजेन्द्रनन्दनने व्रजमें प्रकट रहकर रसकी जो मधुरातिमधुर धारा बहायी, उसकी जगत्‌में क्या, विश्व ब्रह्माण्डमें कोई तुलना नहीं है। बड़े-बड़े योगीन्द्र-मुनीन्द्र तथा ज्ञानी-विज्ञानी इस रसके लिये तरसते हैं। भाईजी (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार) ने समय-समय पर इस विषयपर ‘कल्याण’ के लिये लिखे गये लेखोंमें, विशेष अवसरों पर पढ़े गये लिखित व्याख्यानोंमें तथा व्यक्तिगत पत्रोंके रूपमें जो कुछ लिखा है तथा दैनिक सत्संगमें अथवा अन्य समारोहोंमें मौखिकरूपसे जो कुछ कहा है, वह आध्यात्मिक जगत्‌की एक अमूल्य निधि है। सहृदय पाठक-पाठिकाओंका बहुत दिनोंसे यह आग्रह रहा है कि उनके व्रज-रस-सम्बन्धी लेखों, पत्रों आदिका एक स्वतन्त्र संग्रह पुस्तकरूपमें प्रकाशित किया जाय। प्रस्तुत ग्रन्थ उसी आग्रहका सुमधुर फल है। अवश्य ही इस संग्रहमें उनके उन्हीं लेखों, व्याख्यानों तथा पत्रों आदिका आंशिक समावेश हुआ है, जो मधुर रस अथवा कान्ताभावसे सम्बन्ध रखते हैं। उनके इतर रस-सम्बन्धी लेख आदि प्रायः इसमें नहीं आ पाये हैं। इनके अतिरिक्त उन्होंने मौखिक प्रवचनों एवं व्यक्तिगत पत्रोंमें इस विषयपर इतना अधिक कहा और लिखा है कि वह सब तो संगृहीत हो ही नहीं सकता।

विषय को भलीभाँति हृदयंगम करानेके लिये एकत्रित सामग्रीको सात प्रकरणोंमें बाँटा गया है। पहले प्रकरणका शीर्षक है-‘ श्रीराधा’। कहना न होगा कि व्रज-रसके प्राण श्रीव्रजराजकुमारकी आत्मा श्रीराधिका हैं- ‘आत्मा तु राधिका तस्य।’ एक रूपमें जहाँ श्रीराधा श्रीकृष्णकी आराधिका-उपासिका हैं, दूसरे रूपमें वे उनकी आराध्या उपास्या भी हैं- ‘आराध्यते असौ इति राधा’। शक्ति और शक्तिमान्में वस्तुतः कोई भेद न होनेपर भी भगवान्‌के सविशेष रूपोंमें शक्तिकी प्रधानता है। शक्तिमान्‌की सत्ता ही शक्तिके आधारपर है। शक्ति नहीं तो शक्तिमान् कैसे ? ‘रस्यते असौ इति रसः’ इस व्युत्पत्तिके अनुसार रसकी सत्ता ही आस्वादके लिये है। अपने-आपको अपना आस्वादन करानेके लिये ही स्वयं रसरूप (‘रसो वै सः’) श्रीकृष्ण ‘राधा’ बन जाते हैं। इसीलिये व्रज- रसमें ‘राधा’ की विशेष महिमा है। श्रीकृष्ण प्रेमके पुजारी हैं, इसीलिये वे अपनी पुजारिन की पूजा करते हैं, उन्हें अपने हाथों सजाते-सँवारते हैं, उनके रूठ जानेपर उन्हें अपने प्राणोंके निर्मंछनद्वारा प्रसन्न करते हैं। ‘चाँपत चरन मोहनलाल’ तथा – ‘देख्यौ दुस्यौ वह कुंज कुटीर में बैठ्यो पलोटत राधिका पायन।’

– आदि उक्तियोंद्वारा रसिक कवियोंने श्रीकृष्णकी इसी प्रेमप्रवणताकी ओर संकेत किया है। शक्तिकी प्रधानताको द्योतित करनेके लिये ही ‘राधाकृष्ण’, ‘सीताराम’ आदि युगल नामोंमें ‘राधा’ और ‘सीता’ का नामोल्लेख पहले किया जाता है। इसी परिपाटीके अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थमें भी ‘श्रीराधा’ शीर्षक प्रकरणको प्रथम स्थान दिया गया है। आकारकी दृष्टिसे भी यह प्रकरण सबसे बड़ा है। इस प्रकरणमें श्रीराधाका दिव्यातिदिव्य स्वरूप, उनके प्रेमकी अलौकिक महिमा, श्रीकृष्णके साथ उनका पवित्रतम सम्बन्ध आदि दुरूह एवं गूढ़ विषयोंका मार्मिक विवेचन किया गया है तथा प्रसंगवश श्रीराधाके विषयमें तथा श्रीराधाकृष्णके प्रेम-सम्बन्धमें उठायी गयी विविध शंकाओंका बड़े ही सुन्दर ढंगसे समाधान किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थमें व्रज-रसका सिद्धान्तपक्ष उपन्यस्त किया गया है। लीलापक्षका इसमें विशेष रूपमें समावेश नहीं है।

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