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Shrimad Bhagwatgita (श्रीमद्भगवतगीता शांकरभाष्य)

153.00

Author Harikrishna Das Goyandka
Publisher Gita Press, Gorakhapur
Language Sanskrit & Hindi
Edition 43th edition
ISBN -
Pages 510
Cover Hard Cover
Size 19 x 3 x 27 (l x w x h)
Weight
Item Code GP0100
Other Code 10 (श्रीमद्भगवतगीता शांकरभाष्य हिन्दी अनुवादसहित)

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Description

श्रीमद्भगवतगीता (Shrimad Bhagvadgita) गीतापर अनेक भाष्य और टीकाएँ बनी हैं। और अब भी उसके विवेचनमें जो साहित्य बनता जाता है, वह भी उपेक्षणीय नहीं है। परन्तु गीताका अध्ययन स्वतन्त्ररूपसे बहुत कम हुआ है। सिद्धान्तप्रतिपादन और साम्प्रदायिक दृष्टि से ही उसपर अधिक विचार हुआ है। उसका परिणाम यह हुआ है कि गीताका वास्तविक अर्थ कठिनतासे समझमें आता है। प्रतिभाशाली आचायर्यों और टीकाकारोंके मतविभिन्नतासे साधारण बुद्धिके लोग घबड़ा जाते हैं। महाकवि और उसके उत्कृष्ट काव्यमें ऐसी शक्ति होती है कि समाजको प्रगतिके साथ उसमें नये अर्थ निकाले जाते हैं और उसके द्वारा नवीन भावनाओंकी पूर्ति होती रहती है। फिर गीता-जैसे अतुलनीय ग्रन्थमें समय-समयपर आवश्यकतानुसार अनेक आशय और अर्थ निकाले गये तो कोई नयी बात नहीं है। इससे ग्रन्थकी महिमाका परिचय मिलता है। परन्तु उसके मूल सिद्धान्तोंको यथावत् निश्चयपूर्वक खोज निकालना अवश्य ही अति कठिन हो जाता है। जिस ग्रन्थने अपूर्व समन्वय किया है, वही मत-विभिन्नताके कारण परस्परविरोधी सिद्धान्तोंका समर्थक बना लिया गया है। मनुष्यको सत्यका अंश भी बुद्धिगम्य हो जाय तो वह कृतकृत्य हो जाता है। भाष्यकारोंने जैसा अपने अनुभवसे गीताके तत्त्वको समझा, वैसा ही वर्णन किया है। उनके समन्वयमें जो आनन्द है, वह उनके पक्षपात और विरोधकी आलोचनामें नहीं है। अतएव इस बातकी चर्चा यहाँ अभीष्ट नहीं है कि गीताके वास्तविक अर्थकी रक्षा भगवान् शंकराचार्यने अपने भाष्यमें कहाँतक की है। प्रचारकको सम्भवतः अत्युक्तिका आश्रय आवश्यक होता है। यह भी याद रखना उचित है-

शङ्करः शङ्करः साक्षाद् व्यासो नारायणः स्वयम्।

तियोर्विवादे सम्प्राप्ते न जाने किं करोम्यहम् ॥

भगवान् शंकराचार्यके कुछ सिद्धान्तों का स्थूलरूप से वर्णन करना युक्तियुक्त है, जिससे गीताभाष्यमें जो उनका दृष्टिबिन्दु है वह सहज में अवगत हो जाय। इस बातके माननेमें हमें कोई संकोच नहीं कि अनेक वाक्य गीतामें ऐसे मिल सकते हैं, जिनको द्वैत और अद्वैतसिद्धान्ती अपना प्रमाणवचन बना सकते हैं, गीताके कई मार्मिक श्लोक दोनों पक्षोंके समर्थक समझे जा सकते हैं।

श्रीशंकराचार्यसे पूर्व जो गीतापर भाष्य लिखे गये उनमेंसे अब एक भी नहीं मिलता। भर्तृप्रपञ्चके भाष्यका श्रीशंकराचार्यने उल्लेख किया है और उसका खण्डन भी किया है। भर्तृप्रपञ्श्चके अनुसार कर्म और ज्ञान दोनोंसे मिलकर मोक्षकी प्राप्ति होती है, श्रीशंकराचार्य केवल विशुद्ध ज्ञान ही मोक्षप्रासिका उपाय बताते हैं। यही भेद एकायन-सम्प्रदाय और उपनिषद्‌में भी है। एकायनके मतमें आत्मा परमेश्वरका अंश है और उसीके आश्रित है। उपनिषद् आत्मा और ब्रह्मकी अभिन्नताका निरूपण करते हैं। उपनिषद्‌में ज्ञान मोक्षका साधन है और एकायन प्रपत्तिसे मोक्ष मानते हैं। और गोतामें स्पष्ट ऐसे वचन हैं कि जीव ईश्वरका सनातन अंश है ‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ और ईश्वरकी शरणागति और आश्रयमें ही उसका कल्याण है, ‘मामेकं शरणं व्रज’ यह सिद्धान्तवाक्य प्रपत्तिका पोषक है। भक्तिहीन कर्म व्यर्थ है और भक्तिहीन ज्ञान शुष्क एवं नीरस है। उपनिषद्‌के अनुसार प्रकृति मिथ्या है और एकायन प्रकृतिको नित्य परन्तु परमेश्वरके अधीन मानते हैं। उपनिषद्के अनुसार ज्ञानीके लिये प्रकृति विलीन हो जाती है और एकायनका मत है कि ज्ञानी प्रकृतिके खेलको देखा करता है। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि पाञ्श्चरात्र और एकायनके सिद्धान्त गीतामें स्पष्ट मिलते हैं। परन्तु यह भी सहसा नहीं कहा जा सकता कि श्रीशंकराचार्यके सिद्धान्तोंका भी समर्थन गीता पूर्णतः नहीं करती।

वैसे तो शांकरसिद्धान्तका विस्तृतरूपसे प्रतिपादन ब्रह्मसूत्रके शारीरक नामक भाष्यमें किया गया है, परन्तु गीता-भाष्यसे भी वह भली प्रकार अवगत हो जाता है। सिद्धान्त अति संक्षेपसे यह है कि मनुष्यको निष्कामभावसे स्वकर्ममें प्रवृत्त रहकर चित्तशुद्धि करनी चाहिये। चित्तशुद्धिका उपाय ही फलाकाङ्क्षाको छोड़कर कर्म करना है। जबतक चित्तशुद्धि न होगी, जिज्ञासा उत्पन्न नहीं हो सकती, बिना जिज्ञासाके मोक्षकी इच्छा ही असम्भव है। पश्चात् विवेकका उदय होता है। विवेकका अर्थ है नित्य और अनित्य वस्तुका भेद समझना। संसारके सभी पदार्थ अनित्य हैं और केवल आत्मा उनसे पृथक् एवं नित्य है, ऐसा अनुभव होनेसे विवेकमें दृढ़ता होती है, दृढ़ विवेकसे वैराग्य उत्पन्न होता है। लोकपरलोकके यावत् सुख और भोगोंके प्रति पूर्ण विरक्ति बिना वैराग्य दृढ़ नहीं होता। अनित्य वस्तुओंमें वैराग्य मोक्षका प्रथम कारण है और इसीसे शम् दम, तितिक्षा और कर्म-त्याग सम्भव होते हैं, इसके पश्चात् मोक्षका कारण जो ज्ञान है; उसका उदय होत है। बिना विशुद्ध ज्ञानके मोक्ष किसी प्रकार भी नहीं मिल सकता।

न योगेन न सांख्येन कर्मणा नो न विद्यया।

ब्रह्मात्मकबोधेन मोक्षः सिद्धयति नान्यथा ॥

जिन साधनोंका फल अनित्य है वे मोक्षके कारण हो ही नहीं सकते। मोक्षका स्वरूप है जीवात्मा परमात्माकी अभिन्नताका ज्ञान। दोनों एक स्वरूप हैं, इसी ज्ञानका नाम मोक्ष है।

जीवात्मा-परमात्मामें जो भेद मालूम होता है वह प्रकृतिके कारणसे है। इस भ्रान्तिकी निवृत्ति ज्ञानद्वार होती है। द्वैत जो भासता है उसका कारण माया है। और वह माया अनिर्वचनीया है। न तो वह स और न असत् है और दोनोंहीके धर्म उसमें भासते हैं। इसीलिये उसको ‘अनिर्वचनीया’ विशेषण दिया गया है। वास्तवमें माया भी मिथ्या है। क्योंकि सत्से असत्‌की उत्पत्ति सम्भव नहीं और सत्-असत्का मेल भी सम्भव नहीं और असत्में कोई शक्ति ही नहीं। अतएव जगत् केवल भ्रान्तिमात्र है और स्वप्रवत् है।

भगवान् शंकराचार्यको ‘मायावादी’ कहना न्यायसंगत नहीं। उन्होंने मायाका प्रतिपादन नहीं किया। जब *विपक्षी दृश्यमान, परन्तु मिथ्या जगत्का कारण आग्रहपूर्वक पूछता है तो मायाको, जो स्वयं मिथ्या है, बता दिया जाता है। यही कारण है कि जीवभाव वा जीवका यह अनुभव कि वह बद्ध है, वास्तवमें कल्पित है, अज्ञानके आवरणसे जीव अपने स्वरूपको भूला हुआ है और ज्ञान ही इस अज्ञानका नाशक है।

भगवान् शंकराचार्य निवृत्ति-मार्गके उपदेष्टा हैं और गीताको भी उन्होंने निवृत्ति-मार्ग-प्रतिपादक ग्रन्थ माना है। उनके मतानुसार संन्यासके बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। यही उनका पुनः पुनः कथन है। परन्तु इतना ध्यान रखना उचित है कि कर्म वा प्रवृत्तिमार्गको वे चित्तशुद्धिके लिये आवश्यक समझते हैं। अतएव वे सभीको संन्यासका अधिकारी नहीं मानते। सच्चा संन्यास अर्थात् विद्वत्संन्यास वहीं है जिसमें मनुष्य किसी वस्तुका त्याग नहीं करता वरं पके फल जैसे वृक्षसे आप ही गिर पड़ते हैं, संसारसे वह सर्वथा निर्लिप्त हो जाता है। लोहेके तप्त गोलेको हाथसे छोड़ देनेके लिये किसके आदेशकी प्रतीक्षा होती है?

गीताभाष्यमें यही सिद्धान्त भगवान् शंकराचार्यने प्रतिपादित किया है। आधुनिक संसारके इतिहासमें शंकर-जैसा कोई ज्ञानी और दार्शनिक दूसरा नहीं मिलता। उनके सिद्धान्तोंको समझनेमें यह हिन्दी-अनुवाद अत्यन्त सहायक होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं। अनुवादक महाशयके सराहनीय परिश्रमकी सफलता इसीमें है कि आचार्यके सिद्धान्तोंसे हम सुगमतापूर्वक परिचय प्राप्त करें और हममें मुमुक्षुताका भाव भली प्रकार जाग्रत् हो।

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