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Shrimad Valmiki Ramayan Part-2 (श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण द्वितीय खण्ड) – 76

350.00

Author Maharishi Valmiki
Publisher Gita Press Gorakhapur
Language Sanskrit & Hindi
Edition 68th edition
ISBN -
Pages 925
Cover Hard Cover
Size 19 x 4 x 27 (l x w x h)
Weight
Item Code GP0101
Other Code - 76

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Description

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण द्वितीय खण्ड (Shrimad Valmiki Ramayan Part 2)

रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे। रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः॥
रामं रामानुजं सीतां भरतं भरतानुजम्। सुग्रीवं वायुसूनुं च प्रणमामि पुनः पुनः॥
वेदवेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे। वेदः प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायणात्मना॥

वेद जिस परमतत्त्वका वर्णन करते हैं, वही श्रीमन्नारायण-तत्त्व श्रीमद्रामायणमें श्रीरामरूपसे निरूपित है। वेदवेद्य परमपुरुषोत्तमके दशरथनन्दन श्रीरामके रूपमें अवतीर्ण होनेपर साक्षात् वेद ही श्रीवाल्मीकिके मुखसे श्रीरामायणरूपमें प्रकट हुए, ऐसी आस्तिकोंकी चिरकालसे मान्यता है। इसलिये श्रीमद्वाल्मीकीय रामायणकी वेदतुल्य ही प्रतिष्ठा है। यों भी महर्षि वाल्मीकि आदिकवि हैं, अतः विश्वके समस्त कवियोंके गुरु हैं। उनका ‘आदिकाव्य’ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण भूतलका प्रथम काव्य है। वह सभीके लिये पूज्य वस्तु है। भारतके लिये तो वह परम गौरवकी वस्तु है और देशकी सच्ची बहुमूल्य राष्ट्रीय निधि है। इस नाते भी वह सबके लिये संग्रह, पठन, मनन एवं श्रवण करनेकी वस्तु है। इसका एक-एक अक्षर महापातकका नाश करनेवाला है-

एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्।
यह समस्त काव्योंका बीज है- ‘काव्यबीजं सनातनम्।’ (बृहद्धर्म० १।३०।४७)

श्रीव्यासदेवादि सभी कवियोंने इसीका अध्ययन कर पुराण, महाभारतादिका निर्माण किया। ‘बृहद्धर्मपुराण’ में यह बात विस्तारसे प्रतिपादित है। श्रीव्यासजीने अनेक पुराणोंमें रामायणका माहात्म्य गाया है। स्कन्दपुराणका रामायणमाहात्म्य तो इस ग्रन्थके आरम्भमें दिया ही है, कई छिट-पुट माहात्म्य अलग भी हैं। यह भी प्रसिद्ध है कि व्यासजीने युधिष्ठिरके अनुरोधसे एक व्याख्या वाल्मीकिरामायणपर लिखी थी और उसकी एक हस्तलिखित प्रति अब भी प्राप्य है। इसका नाम ‘रामायणतात्पर्यदीपिका’ है। इसका उल्लेख दीवानबहादुर रामशास्त्रीने अपनी पुस्तक ‘स्टडीज इन रामायण’ के द्वितीय खण्डमें किया है।

यह पुस्तक १९४४ ई० में बड़ौदासे प्रकाशित है। द्रोणपर्वके १४३। ६६-६७ श्लोकोंमें महर्षि वाल्मीकिके युद्धकाण्डके ८१ । २८ को नामोल्लेखपूर्वक श्लोकका हवाला दिया गया है। रे ‘अग्निपुराण ‘के ५ से १३ तकके अध्यायोंमें ‘वाल्मीकि ‘के नामोल्लेखपूर्वक रामायणसारका वर्णन है। गरुडपुराण, पूर्वखण्डके १४३ वें अध्यायमें भी ठीक इन्हीं श्लोकोंमें रामायणसार कथन है। इसी प्रकार हरिवंश (विष्णुपर्व ९३।६-३३) में भी यदुवंशियोंद्वारा वाल्मीकिरामायणके नाटक खेलनेका उल्लेख है-

रामायणं महाकाव्यमुद्दिश्य नाटकं कृतम्।

श्रीव्यासदेवजीने वाल्मीकिकी जीवनी भी बड़ी श्रद्धासे ‘स्कन्दपुराण’ वैष्णवखण्ड, वैशाखमाहात्म्य १७ से २० अध्यायोंतक (‘कल्याण’ सं० स्कन्दपुराणाङ्क पृ० ३७४ से ३८१ तक), आवन्त्यखण्ड अवन्तीक्षेत्रमाहात्म्यके २४ वें अध्यायमें (‘कल्याण’ संक्षिप्त स्कन्दपुराणाङ्क पृ० ७०८-९), प्रभासखण्डके २७८ वें अध्यायमें (सं० स्कन्दपुराणाङ्क पृ० १०२५-२७) तथा अध्यात्मरामायणके अयोध्याकाण्डमें (६।६४-९२) वर्णन किया है। मत्स्यपुराण १२।६१ में वे इन्हें ‘भार्गवसत्तम ‘से स्मरण करते हैं और भागवत ६ । १८।५ में ‘महायोगी ‘से।

इसी प्रकार कविकुलतिलक कालिदासने रघुवंशमें आदिकविको दो बार स्मरण किया है। एक तो- ‘कविः कुशेध्माहरणाय यातः। निषादविद्धाण्डजदर्शनोत्थः श्लोक- त्वमापद्यत यस्य शोकः २॥’ (१४। ७०) इस श्लोकमें, दूसरे २।४ के ‘पूर्वसूरिभिः’ में। भवभूतिको करुणरसका आचार्य माना गया है, किंतु हम देखते हैं कि उन्हें इसकी शिक्षा आदिकविसे ही मिली है। वे भी उत्तररामचरितके दूसरे अङ्कमें ‘वाल्मीकिपाश्वादिह पर्यटामि’ ‘मुनयस्तमेव हि पुराणब्रह्मवादिनं प्राचेतसमृषिं उपासते’ आदिसे उन्हींका स्मरण करते हैं। ‘सुभाषितपद्धति’ के निर्माता शार्ङ्गधर उनके इस ऋणको स्पष्ट व्यक्त करते हुए लिखते हैं-

कवीन्द्रं नौमि वाल्मीकिं यस्य रामायणीकथाम्। चन्द्रिकामिव चिन्वन्ति चकोरा इव साधवः॥

इसी तरह महाकवि भास, आचार्य शङ्कर, रामानुजादि सभी सम्प्रदायाचार्य, राजा भोज आदि परवर्ती विद्वानोंसे लेकर हिंदीसाहित्यके प्राण गोस्वामी तुलसीदासजीतकने ‘बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।’ ‘जान आदिकबि नाम प्रतापू’, ‘बालमीकि भए ब्रह्म समाना’ (रामचरितमानस), ‘जहाँ बालमीकि भये ब्याधतें मुनिंदु साधु’ ‘मरा मरा’ ‘जपें सिख सुनि रिषि सातकी’ (कवितावली, उत्तरकाण्ड १३८ से १४०), ‘कहत मुनीस महेस महातम उलटे सीधे नामको ‘महिमा उलटे नामकी मुनि कियो किरातो।’ (विनयपत्रिका १५१), ‘उलटा जपत कोलते भए ऋषिराव’ (बरवैरामा० ५४), ‘राम बिहाइ मरा जपते बिगरी सुधरी कबि कोकिलहू की’ (कवि० ७।८८) इत्यादि पदोंसे इनका बार-बार श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है; कृतज्ञता ज्ञापन की है।

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