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Shri Garg Samhita (श्रीगर्ग सहिंता)

360.00

Author Pt. Ramnarayan Datt Shastri Pandey
Publisher Gita Press, Gorakhapur
Language Sanskrit & Hindi
Edition 5th edition
ISBN -
Pages 1120
Cover Hard Cover
Size 19 x 5 x 27 (l x w x h)
Weight
Item Code GP0095
Other Code - 2260

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Description

Shri Garg Samhita (श्रीगर्ग सहिंता)

शिखिमुकुटविशेषं नीलपद्माङ्गदेशं

विधुमुखकृतकेशं कौस्तुभापीतवेशम् ।

मधुररवकलेशं शं भजे भ्रातृशेषं

व्रजजनवनितेशं माधवं राधिकेशम् ॥ (गर्गसंहिता १०।५९।१३)

‘जिनके मस्तकपर मोरपंखका मुकुट विशेष शोभा देता है, जिनका अंगदेश (सम्पूर्ण शरीर) नील- कमलके समान श्यामल है, चन्द्रमाके समान मनोहर मुखपर कुंचित केश सुशोभित हैं, कौस्तुभमणिकी सुनहरी आभासे जिनका बेश कुछ पीतवर्णका दिखायी देता है (अथवा जो पीताम्बरधारी हैं), जो (मुरलीकी) मधुर ध्वनिरूपी कलाके स्वामी हैं, कल्याणस्वरूप हैं, शेषावतार बलराम जिनके भाई हैं तथा जो व्रजवनिताओंके वल्लभ हैं, उन राधिकाके प्राणेश्वर माधवका मैं भजन करता हूँ।’

गर्गसंहिता षोडशकलापूर्ण भगवान् श्रीकृष्णके चारु चरितोंका सर्वमान्य प्राचीन इतिहासग्रन्थ है। समस्त वैष्णव-सम्प्रदायोंमें इसकी कथाओं एवं प्रमाणोंको बड़ी आदर-बुद्धिसे ग्रहण करनेकी परम्परा रही है, कारण इस ग्रन्थके प्रणेता महर्षि गर्गकी गणना वेदोंसे लेकर महाभारत, तदनन्तर पाणिनिमुनिकृत ‘अष्टाध्यायी’ तक सर्वत्र सम्मानपूर्वक की गयी है। ऋग्वेदका एक सूक्त (६। ४७) आपके ही द्वारा दृष्ट है। इसी प्रकार महामुनि पाणिनिने ‘गर्गादिभ्यो यञ्’ (अष्टाध्यायी ४।१। १०५) में आपकी गणना अनेक ऋषियोंसे पूर्व ही की है। इतना ही नहीं, श्रीमद्भागवतके कई प्राचीन टीकाकारोंने गर्गसंहिताके श्लोकोंको प्रमाणरूपमें उद्धृत किया है। महर्षि गर्ग आंगिरसगोत्रके परम शिवभक्त थे। आपका वह आश्नम, जिसमें आपने गर्गसंहिताका प्रणयन किया, उसकी स्थिति हिमाचलके वायव्यकोणमें गाँचलशिखरपर मान्य है। आप महाराज पृथु एवं यदुवंशियोंके गुरु रहे (महाभारत शान्ति० ५९।११ तथा भागवत १०।८)। ज्योतिषपर भी आपके ग्रन्थ ‘गर्गमनोरमा’ एवं ‘बृहद्गर्गसंहिता’ प्राप्त होते हैं।

प्रस्तुत गर्गसंहिता, इन्हीं महर्षि गर्गकी अप्रतिम रचना है, जो दशखण्डात्मिका अर्थात् दस खण्डों (१-गोलोकखण्ड, २-वृन्दावनखण्ड, ३-गिरिराजखण्ड, ४-माधुर्यखण्ड, ५-मथुराखण्ड, ६- द्वारकाखण्ड, ७-विश्वजित् खण्ड, ८-बलभद्रखण्ड, ९-विज्ञानखण्ड एवं १०-अश्वमेधखण्ड) में विभक्त है।

यह सम्पूर्ण संहिता अत्यन्त मधुर श्रीकृष्णलीलासे परिपूर्ण है। श्रीराधाकी दिव्य माधुर्वभावमिश्रित लीलाओंका इसमें विशद वर्णन है। श्रीमद्भागवतमें जो कुछ सूत्ररूपमें कहा गया है, गर्गसंहितामें वही विशद वृत्तिरूपमें वर्णित है। एक प्रकारसे यह श्रीमद्भागवतोक्त श्रीकृष्णलीलाका महाभाष्य है। श्रीमद्भागवतमें भगवान् श्रीकृष्णकी परिपूर्णताके सम्बन्धमें महर्षि व्यासने ‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’ – इतना ही कहा है, महामुनि गर्गाचार्यने – यस्मिन् सर्वाणि तेजांसि विलीयन्ते स्वतेजसि । तं वदन्ति परे साक्षात् परिपूर्णतमं स्वयम् ॥ – कहकर श्रीकृष्णमें समस्त भागवत-तेजोंके प्रवेशका वर्णन करके उनकी परिपूर्णतमताका वर्णन किया है।

श्रीकृष्णकी मधुरलीलाकी रचना हुई है दिव्य ‘रस’ के द्वारा; उसी रसका रासमें प्रकाश हुआ है। श्रीमद्भागवतमें उस रासके केवल एक बारका वर्णन पाँच अध्यायोंमें किया गया है; किंतु इस गर्ग- संहितामें वृन्दावनखण्डमें, अश्वमेधखण्डके प्रभासमिलनके समय और उसी अश्वमेधखण्डके दिग्विजयके अनन्तर लौटते समय – इस प्रकार तीन बार कई अध्यायोंमें उसका बड़ा सुन्दर वर्णन है। परम प्रेमस्वरूपा, श्रीकृष्णसे नित्य अभिन्नस्वरूपा शक्ति श्रीराधाजीके दिव्य आकर्षणसे श्रीमथुरानाथ एवं श्रीद्वारकाधीश श्रीकृष्णने बार-बार गोकुलमें पधारकर नित्यरासेश्वरी, नित्यनिकुंजेश्वरीके साथ महारासकी दिव्य लीला की है-इसका विशद वर्णन इसमें हुआ है। इसके माधुर्यखण्डमें विभिन्न गोपियोंके पूर्वजन्मोंका बड़ा ही सुन्दर वर्णन है, इसके सूत्र रामकथासे भी जुड़े हैं। गर्गसंहितामें और भी बहुत सी ऐसी नयी-नयी कथाएँ हैं, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं।

यह संहिता भक्त-भावुकोंके लिये परम समादरकी वस्तु है; क्योंकि इसमें श्रीमद्भागवतके गूढ़ तत्त्वोंका स्पष्ट रूपमें उल्लेख है। उपासनाकी दृष्टिसे भी जहाँ माधुर्यखण्डके अन्तर्गत ‘श्रीयमुना-पंचांग’ (कवच, स्तोत्र, पटल, पूजा- पद्धति एवं सहस्त्रनाम) निबद्ध है, वहीं बलभद्रखण्डके अन्तर्गत ‘श्रीबलभद्र-पंचांग’ दिया गया है। संहिताके अंतिम अश्वमेधखण्डमें श्रीगर्गाचार्यद्वारा प्रणीत ‘श्रीकृष्णसहस्रनामस्तोत्र’ भी दिया गया है। ग्रन्थमें इसी प्रकार बीच-बीचमें कई सुन्दर स्तोत्र तथा तीर्थमाहात्म्य इत्यादि गुम्फित हैं।

गोलोक, अवतारतत्त्व, भूगोल-वर्णन, तीर्थ-परिचय, संगीत, मन्दिर निर्माण, भक्तियोग, यज्ञ, उपासना, ज्ञान इत्यादि विषयोंपर भी महत्त्वपूर्ण सामग्री इस ग्रन्थमें समाहित है। सम्पूर्ण संहितामें विविध विषयोंका वर्णन भगवान् श्रीकृष्णकी मधुरातिमधुर लीलाओंके परिप्रेक्ष्यमें ही विन्यस्त है; जिससे कृष्णभक्तोंके लिये इसका अक्षुण्ण महत्त्व है।

गीताप्रेसद्वारा सर्वप्रथम संवत् २०२६ विक्रमीमें गर्गसंहिताका प्रकाशन कल्याणके विशेषांक (वर्ष ४४ अंक १, जनवरी १९७० ई०) में ‘अग्निपुराण-गर्गसंहिता-अंक’ में किया गया था, जिसमें इसके नौ खण्ड प्रकाशित किये गये थे। शेष अंतिम अश्वमेधखण्डका प्रकाशन इसके अगले वर्ष कल्याणके विशेषांक (वर्ष ४५) में किया गया था। तबतक देवनागरीमें छपी श्रीवेंकटेश्वर प्रेसकी पुस्तकमें कई अध्याय नहीं थे। स्वर्गीय श्रीपंचानन तर्करत्न महोदयद्वारा सम्पादित बंगला लिपिमें छपी पुस्तकमें वे अध्याय प्राप्त हुए हैं, उनका अनुबाद भी इसमें दिया गया। स्थानाभावके कारण दोनों वर्ष मूल श्लोक न देकर, श्लोकांकसहित सम्पूर्ण अनुवाद दिया गया था। बादके वर्षोंमें वही सम्पूर्ण सामग्री एक ग्रन्थाकार जिल्दमें प्रकाशित होती रही।

पिछले कई वर्षोंसे विद्वान् पाठकोंका निरन्तर यह आग्रह था कि सम्पूर्ण ग्रन्थ मूल संस्कृत श्लोकोंके साथ प्रकाशित किया जाय, जिससे गर्गाचार्यजी की मूलवाणी सुरक्षित हो सके। भगवत्कृपासे अब सम्पूर्ण मूलपाठसहित गर्गसंहिताका सानुवाद संस्करण प्रस्तुत किया जा रहा है। इसमें स्थान-स्थानपर अपेक्षित संशोधन इत्यादि करके परिमार्जित करनेकी भी चेष्टा की गयी है। आशा है, प्रेमी पाठकोंको इससे प्रसन्नता होगी तथा वे इसका अधिकाधिक लाभ उठायेंगे।

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