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Shri Vishnu Puran (श्रीविष्णुपुराण)

180.00

Author Sri Muni Lal Gupt
Publisher Gita Press, Gorakhapur
Language Sanskrit & Hindi
Edition 64th edition
ISBN -
Pages 544
Cover Hard Cover
Size 19 x 3 x 27 (l x w x h)
Weight
Item Code GP0086
Other Code - 48

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Description

श्रीविष्णुपुराण (Shri Vishnu Puran) अष्टादश महापुराणोंमें श्रीविष्णुपुराण का स्थान बहुत ऊँचा है। इसके रचयिता श्रीपराशरजी हैं। इसमें अन्य विषयोंके साथ भूगोल, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, राजवंश और श्रीकृष्ण-चरित्र आदि कई प्रसंगोंका बड़ा ही अनूठा और विशद वर्णन किया गया है। भक्ति और ज्ञानकी प्रशान्त धारा तो इसमें सर्वत्र ही प्रच्छन्नरूपसे बह रही है। यद्यपि यह पुराण विष्णुपरक है तो भी भगवान् शंकरके लिये इसमें कहीं भी अनुदार भाव प्रकट नहीं किया गया। सम्पूर्ण ग्रन्थमें शिवजीका प्रसंग सम्भवतः श्रीकृष्ण-बाणासुर संग्राममें ही आता है, सो वहाँ स्वयं भगवान् कृष्ण महादेवजीके साथ अपनी अभिन्नता प्रकट करते हुए श्रीमुखसे कहते हैं-

त्वया यदभयं दत्तं तद्दत्तमखिलं मया। मत्तोऽविभिन्नमात्मानं द्रष्टुमर्हसि शङ्कर ॥ ४७॥

योऽहं स त्वं जगच्चेदं सदेवासुरमानुषम् । मत्तो नान्यदशेषं यत्तत्त्वं ज्ञातुमिहार्हसि ॥ ४८ ॥

अविद्यामोहितात्मानः पुरुषा भिन्नदर्शिनः । वदन्ति भेदं पश्यन्ति नागोरन्तरं हर ॥ ४९ ॥

हाँ, तृतीय अंशमें मायामोहके प्रसंगमें बौद्ध और जैनियोंके प्रति कुछ कटाक्ष अवश्य किये गये हैं। (अंश ५ अध्याय ३३) परन्तु इसका उत्तरदायित्व भी ग्रन्थकारकी अपेक्षा उस प्रसंगको ही अधिक है। वहाँ कर्मकाण्डका प्रसंग है और उक्त दोनों सम्प्रदाय वैदिक कर्मके विरोधी हैं, इसलिये उनके प्रति कुछ व्यंग-वृत्ति हो जाना स्वाभाविक ही है। अस्तु !

आज सर्वान्तर्यामी सर्वेश्वरकी असीम कृपासे मैं इस ग्रन्थरत्नका हिन्दी अनुवाद पाठकोंके सम्मुख रखनेमें सफल हो सका हूँ इससे मुझे बड़ा हर्ष हो रहा है। अभीतक हिन्दीमें इसका कोई भी अविकल अनुवाद प्रकाशित नहीं हुआ था। गीताप्रेसने इसे प्रकाशित करनेका उद्योग करके हिन्दी साहित्यका बड़ा उपकार किया है। संस्कृतमें इसके ऊपर विष्णुचिति और श्रीधरी दो टीकाएँ हैं, जो वेंकटेश्वर स्टीमप्रेस बम्बईसे प्रकाशित हुई हैं। प्रस्तुत अनुवाद भी उन्हींके आधारपर किया गया है; तथा इसमें पूज्यपाद महामहोपाध्याय पं० श्रीपंचाननजी तर्करत्नद्वारा सम्पादित बंगला-अनुवादसे भी अच्छी सहायता ली गयी है। इसके लिये मैं श्रीपण्डितजीका अत्यन्त आभारी हूँ।

अनुवादमें यथासम्भव मूलका ही भावार्थ दिया गया है। जहाँ स्पष्ट करनेके लिये कोई बात ऊपरसे लिखी गयी है वहाँ [ ] ऐसा तथा जहाँ किसी शब्दका भाव व्यक्त करनेके लिये कुछ लिखा गया है वहाँ ( ) ऐसा कोष्ठ दिया गया है। अन्तमें, जिन चराचरनियन्ता श्रीहरिकी प्रेरणासे मैंने, योग्यता न होते हुए भी, इस ओर बढ़नेका दुःसाहस किया है उनसे क्षमा माँगता हुआ उन लीलामयकी यह लीला उन्हींके चरणकमलोंमें समर्पित करता हूँ।

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