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Srimad Devi Bhagavat (श्रीमद्देवीभागवत)

342.00

Author -
Publisher Gita Press, Gorakhapur
Language Hindi
Edition 43th edition
ISBN -
Pages 960
Cover Hard Cover
Size 19 x 4 x 27 (l x w x h)
Weight
Item Code GP0134
Other Code - 1133

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Description

श्रीमद्देवीभागवत (Srimad Devi Bhagavat) अठारह पुराणों की परिगणना में जिस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण शीर्ष स्थान पर है उसी प्रकार देवीभागवत को भी महापुराण के रूपमें उतना ही महत्त्व एवं मान्यता प्राप्त है। प्राचीनकालसे ही शाक्त-भक्त इसे ‘शाक्त-भागवत’ या देवीभागवत और भागवत महापुराणको वैष्णव-भक्त ‘वैष्णव-भागवत’ अथवा श्रीमद्भागवत कहते चले आ रहे हैं। तत्त्व-चिन्तकोंकी दृष्टिमें वस्तुतः दोनों भागवत मिलकर एक ही महापुराणकी पूर्ति करते हैं। जैसे वामांग और दक्षिणांगके मिलनेसे एक ही महाकायकी पूर्ति होती है, वैसे ही दोनों भागवत एक ही परमतत्त्वके वाम तथा दक्षिण अंगके पूरक हैं। दोनों ही एक ही ‘परात्पर-तत्त्व’ का बोध करानेवाले भिन्न-भिन्न नाम-रूप, गुण-ऐश्वर्य, लीला-कथा और महिमा आदिका प्रतिपादन मुख्यरूपसे करते हैं। दोनों ही महापुराणोंका एकमात्र लक्ष्य है- परमात्म-तत्त्वसे जीवका एकात्मक सम्बन्ध जोड़ना अर्थात् मनुष्य-जीवनके अभीष्ट, अन्तिम लक्ष्य-मोक्ष प्राप्ति हेतु प्रेरित और तत्पर करना।

भारतीय आर्य-धर्म-दर्शनकी यह विशेषता है कि इसमें सच्चिदानन्द परात्पर ब्रह्मकी मातृ-रूपमें आराधना की गयी है। यह आराधना कल्पित आराधना नहीं है। वस्तुतः यहाँ अनन्त अद्भुत मातृ-रूपमें शुद्ध सच्चिदानन्दमय परात्पर-तत्त्व ही स्वयं प्रकट है। परब्रह्मकी मातृरूपमें उपासना स्वयंमें बड़े महत्त्वकी है। संतानके लिये माता ही सबसे अधिक निकट और सहज स्नेहसे द्रवित होती है। पुत्र कुपुत्र हो जाता है, पर माता कभी कुमाता नहीं होती। वह तो सदा वात्सल्य-सुधा-धारासे निज संततिके जीवनको (सर्वविध उत्कर्ष और साधन-साफल्य-मण्डित करने हेतु) सदा अभिषिक्त और सम्पुष्ट ही करती रहती है। समस्त आर्तियोंका नाश, समस्त विघ्नोंकी निवृत्ति, सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति, सिद्धि, सफलताकी प्राप्ति, परम वैराग्य और तत्त्व- ज्ञानका उदय, भक्ति-प्रेमकी सुधाधारामें अवगाहन- सभी दुर्लभ-से-दुर्लभ पदार्थों तथा तत्त्वोंकी उपलब्धि माताकी आराधना-उपासनासे सहज ही हो जाती है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

उसी साधनोपयोगी, कैवल्यदायक, सुप्रसिद्ध श्रीमद्देवीभागवत पुराणका यह संक्षिप्त हिन्दी-रूपान्तर सर्वप्रथम सन् १९६० ई० में ‘कल्याण’ के ३४ वें वर्षके विशेषांक (संक्षिप्त देवीभागवतांक) के रूपमें प्रकाशित हुआ था। उस समय ‘कल्याण’ के प्रबुद्ध पाठकों, जिज्ञासु-भक्तों, साधकों और सर्वसाधारण श्रद्धालु आस्तिकजनोंने इसे सहज सादर-भावसे अपनाया और अधिक पसन्द किया था। फलस्वरूप उक्त विशेषांकका वह संस्करण (जो संख्यामें लाखसे भी अधिक था) शीघ्र ही समाप्त हो गया। उसी समयसे इसके पुनर्मुद्रणकी माँग निरन्तर बनी हुई थी। पराम्बा भगवतीको अर्हतुकी कृपासे ‘कल्याण’ का पूर्व प्रकाशित वही विशेषांक अब ग्रन्थाकारमें (मात्र लेखोंको छोड़कर सम्पूर्ण ग्रन्थका साररूप) ‘संक्षिप्त श्रीमद्देवीभागवत’ के नामसे श्रीजगदम्बाके सम्मान्य प्रेमी भक्तजनों और सहृदय पाठकोंकी सेवामें प्रस्तुत किया गया है।

इसमें श्रीदेवीभागवत पुराणके विविध विचित्र कथा-प्रसंगोंसहित देवी-माहात्म्य, देवी-आराधनाकी विधि तथा देवी-उपासनाके फलरूपमें प्राप्त आश्चर्यमय शुभ परिणामोंके रोचक तथा ज्ञानप्रद आख्यान भरे पड़े हैं। विशेषतः पराशक्ति श्रीमदेवीके स्वरूप-तत्त्व, महिमा आदिका तात्त्विक विवेचन और लीला-कथाओंका सरस उपादेय वर्णन इसकी मुख्य प्रतिपाद्य विषय सामग्री है। साथ ही अनेकानेक ज्ञानप्रद, रोचक पैराणिक कथाओं एवं अन्यान्य सुरुचिपूर्ण शिक्षाप्रद चरित्रोंका भी इसमें सुन्दर उल्लेख है।

देवीभागवतके श्रवण तथा पारायणकी बड़ी महिमा है। इस कल्याणकारी परम पावन ग्रन्थके पढ़ने- सुनने तथा पारायण करनेसे लोक-परलोकमें सब प्रकारके उत्कर्षकी प्राप्ति और भवरोगसे मुक्ति मिलती है-ऐसा कहा गया है।

भगवतीकी परम अनुकम्पाने ही देवी-स्तवन व आराधनके रूपमें श्रीमद्देवीभागवतका यह मुख्य सार (ग्रन्थरूपमें) आप सबके कर कमलोंमें पुनः समर्पित करनेमें हमें समर्थ और निमित्त बनाया है। इसे हम अकारण करुणामयी माँकी सहज कृपा-वात्सल्यता ही अपना परम सौभाग्य मानते हैं।

आशा है कि सभी जिज्ञासु, श्रद्धालु आस्तिकजन और प्रेमी पाठक इस ग्रन्थरत्नसे अधिकाधिक लाभ उठाते हुए आध्यात्मिक साधना-पथपर उत्तरोत्तर अग्रसरित होते रहेंगे। हमारा यह प्रयास सच्चे अर्थोंमें तभी सार्थक होगा।

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