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Svetasvatara Upanisad (श्वेताश्वतरोपनिषद्)

50.00

Author Swami Maheshanad Giri
Publisher Dakshinamurty Math Prakashan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 1975
ISBN -
Pages 511
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code dmm0057
Other Old and Rare Book

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Description

श्वेताश्वतरोपनिषद् (Svetasvatara Upanisad) यह उपनिषद् छः अध्यायों में विभक्त है एवं छठा अध्याय एक तरह से सारे ही पूर्व अध्यायों का संक्षेपमात्र है। प्रथम श्रध्याय में कुछ ब्रह्मवेत्ता लोग आपस में विचार करते हैं कि जगत् का कारण, संचालक एवं प्रतिष्ठाता कौन है ? जब युक्तियों के द्वारा किसी निर्णय र नहीं पहुंचते तो ध्यान का सहारा लेते हैं एवं ध्यान के द्वारा उनको प्रवाह एवं चक्र इन दो का साक्षात्कार होता है। यह एक रह- स्यमय दर्शन है एवं इस प्रकार का अद्वैत घ्यान और कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। इसी के फलस्वरूप वह एकात्मवाद का अनुभव करते हैं और यह समझ लेते हैं कि जब तक आत्मा और परमात्मा को अलग समझते हैं तब तक बंधन है, और श्रात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान से ही मोक्ष है। इसके बाद इसका विस्तार किया गया है एवं ध्यान के कई प्रकारों का वर्णन है। दूसरा अध्याय व्यान का वर्णन करते हुए ध्यान के अंग कुण्डलिनीयोग, प्राणायाम योग, आसन इत्यादि का विस्तार से वर्णन करता है एवं उससे होने वाले फलों का प्रतिपादन करके अंत में परमात्मा की व्यापकता को सहिता के मंत्रों से उद्धृत करके बताते हैं कि एक परमात्मा किस प्रकार अपनी शक्तियों से अनेक रूप का बनता है, यह तीसरे अध्याय में बताया है।

तीसरे अध्याय की सबसे बड़ी विशेषता है कि रुद्राध्याय के अनेक मंत्रों का एवं पुरुषसूक्त के अनेक मंत्रों का यहां प्रयोग किया गया है। चौथे अध्याय में केवल उस महादेव की कृपा से ही शुभ बुद्धि की प्राप्ति बताई है जिसके फलस्वरूप वह परमात्मा ही अग्नि, सूर्य आदि रूपों में, पुरुष स्त्री इत्यादि रूपों में, नीले, हरे इत्यादि रूपों में प्रतीत होता है। यहीं वह प्रसिद्ध मंत्र मिलता है जिसमें एक अजा के द्वारा अनेक प्रकार की सृष्टि का वर्णन है एवं जिसके आधार पर सांख्यवादी अपनी त्रिगुणात्मिका प्रकृति को वैदिक सिद्ध करने का दुस्साहस करते हैं। परन्तु प्रकरण से यह स्पष्ट है कि यहां पर किसी भी प्रकार की त्रिगुणात्मिकता का प्रतिपादन नहीं है। उसके बाद ऋग्वेद के मंत्रों के सहारे जीव और ईश्वर के स्वरूप का वर्णन किया जाता है एवं महेश्वर और उसकी माया का निरूपण करके अत्यंत शांति का उपाय कई मंत्रों में बताया है। यहीं पर दक्षिणामूर्ति उपासना का भी प्रतिपादन किया गया एवं यजुर्वेद के अपनी रक्षा के मानस्तोके इस प्रसिद्ध मंत्र का श्राध्यात्मिक अर्थ किया है। पांचवें अध्याय में विद्या धौर अविद्या इन दो शक्तियों को बताते हुए कहा है कि किस प्रकार विश्व आगे बढ़ता है एवं जीव अत्यल्प दीखने पर भी वस्तुतः परमा- त्मरूप ही है, पुरुष स्त्री आदि शरीरों में रहते हुए भी वह वस्तुतः उन शरीरों से अतीत है।

शिव केवल भाव के द्वारा ही ग्रहण किया जा सकता है एवं समग्र कलाओं को उत्पन्न करने वाला एकमात्र वही है। छठे धध्याय में इन सब बातों को संक्षेप में बताते हुए उसकी एकता, निष्कलता, निष्क्रियता का प्रतिपादन किया तथा शरण प्राप्ति के मंत्रों का वर्णन किया। तप और शिव की कृपा से ही श्वेताश्वतर महर्षि ने इस तत्त्व का साक्षात्कार किया और यह केवल गुरुभक्त को ही प्रकाशित होता है, यह कहकर इस उपनिषद् को समाप्त किया। इस प्रकार साधक के काम की जितनी भी बातें हो सकती हैं, सभी इस उपनिषद् में था गई हैं। यद्यपि इस उपनिषद् के ऊपर कम से कम १ टीकाथ्रों का प्रकाशन हो चुका है एवं अन्य अनेक टीकायें हस्तलिखित रूप में उपलब्ध हैं तथापि इसका सर्वतोभावेन निरूपण प्रायः नहीं किया गया है। वर्तमान संस्करण में हमने प्रत्येक पद के अर्थ का स्पष्टीकरण ही उद्देश्य रखा है। उसमें उपहित दार्शनिक मीमांसा को बहुत ज्यादा विस्तृत करने का प्रयत्न नहीं किया परन्तु आधार भूत सिद्धान्तों का संकेत अवश्य सर्वत्र कर दिया है।

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