Tarpan Vidhi (तर्पण विधि:)
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Author | Achary Devnarayan Sharma |
Publisher | Shri Kashi Vishwnath Sansthan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2023 |
ISBN | 978-93-92989-08-7 |
Pages | 16 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | TBVP0214 |
Other | Dispatched in 3 days |
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तर्पण विधि (Tarpan Vidhi) मानव जन्म ग्रहण करते ही तीन प्रकार के ऋणों से युक्त हो जाता है- देवऋण, ऋषिऋण तथा पितृऋण । देवर्षिपितृतर्पण द्वारा हम तीनों प्रकार के ऋणों से उऋण हो जाते हैं। ‘तृप्-तृप्तौ प्रीणने च’ धातु से ल्युट् प्रत्यय के योग से तर्पण शब्द की निष्पत्ति होती है, जिसका अर्थ होता है-तृप्त करना या प्रसन्न करना । द्विजों को प्रतिदिन स्नानादि द्वारा पवित्र होकर देवर्षि पितृ तर्पण करना चाहिए।
यद्यपि आत्मा अजर और अमर है।’ यह पाञ्चभौतिक शरीर नश्वर है। शरीर गिर जाने पर यह आत्मा वायुरूप में शरीर से निकल कर वायुमंडल में भ्रमण करते हुए अपनी सन्तति के घर के आस-पास सूक्ष्म रूप में कुछ दिनों तक विराजमान रहता है। श्राद्धक्रिया सम्पन्न हो जाने पर पितरों के साथ मिलकर यही वसु, रुद्र, आदित्य का स्वरूप धारण कर पितृलोक में निवास करते हैं। पितृनारायण सदैव अपनी सन्तति, परिवार एवं पीढ़ी का कल्याण करते हैं। ईश्वर द्वारा फल की प्राप्ति में विलम्ब हो सकता है किन्तु इस कलिकाल में पितरों की सद्यःकृपा प्राप्त होती है। जैसे देवी देवताओं की आराधना एवं साधना के लिए पृथक् पृथक् तिथि, मास, व्रत, त्यौहार बनाये गये हैं, वैसे ही पितृनारायण की आराधना के लिए पितृपक्ष का विशेष समय निर्धारित है। इस पक्ष में कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता। यह पक्ष पूर्णतः पितरों को समर्पित है। इस पक्ष में पूर्वजों की आत्मा की शान्ति केलिए पिण्डदान, श्राद्ध, ब्राह्मण भोजन, द्रव्य वस्त्रादि का दान पितरों के निमित्त अपने सामर्थ्य के अनुसार करना चाहिए । पितर इस समय अदृश्य रूप में जल, पिण्डादि ग्रहण करने के लिए पृथ्वी पर अपनी सन्तति के पास आते हैं। इसी से उन्हें वर्ष पर्यन्त तृप्ति मिलती है। अतः दैनिक क्रिया में पितृतर्पण को महत्त्व दिया गया है।
यदि उपर्युक्त तर्पण प्रतिदिन सम्भव न हो तो कम से कम पितृपक्ष में तो हमें श्रद्धा एवं कृतज्ञता पूर्वक अवश्य ही इसे करना चाहिए। आश्विन कृष्णपक्ष के पन्द्रह दिन पितृपक्ष कहा जाता है। इन दिनों या उनकी पुण्यतिथियों पर या पितृ- विसर्जन के दिन यथाशक्ति यदि हमने श्राद्धतर्पणादि नही किया तो हमारे पितर निराश एवं असन्तुष्ट होकर अपने स्थान को वापस चले जाते हैं। हमारी सनातन मान्यता के अनुसार जीव का पुनर्जन्म स्वीकार किया गया है। मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार मृत्यु के उपरान्त अगली योनि प्राप्त करता है, किन्तु एक अंश से हमारे पूर्वज सूक्ष्म रूप में पितृलोक में भी निवास करते हैं। प्रत्येक सनातन धर्मावलम्बी का यह पुनीत कर्तव्य है कि देवर्षिपितृतर्पण कर हम उन्हें तृप्त कर उनसे आशीष माँगे । तीनों प्रकार के ऋणों से मुक्त होने का यही सरल उपाय है। देवतर्पण तथा ऋषितर्पण में त्रिकुश के साथ अक्षत और यव का प्रयोग, पितृतर्पण में त्रिकुश के साथ काले तिल का प्रयोग करना चाहिए-
“अक्षतोदकैर्यवाद्भिस्तर्पयेद्देवान् सतिलाभिः पितृस्तथा”
“देवान् ब्रह्मऋषींश्चैव तर्पयेदक्षतोदकैः” (कूर्मपुराण)
प्रस्तुत पुस्तक में अत्यन्त सरल विधि द्वारा त्रिविध-तर्पण प्रयोग दिया गया है। इससे सनातनधर्मावलम्बी सभी हिन्दू अवश्य उपकृत होंगे।
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