Tripindi Shraddh Paddhati (त्रिपिण्डी श्राद्ध पद्धति)
₹25.00
Author | Pt. Sri Ram Krishna Ji Shastri |
Publisher | Gita Press, Gorakhapur |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 18th edition |
ISBN | - |
Pages | 128 |
Cover | Paper Back |
Size | 21 x 1 x 14 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | GP0147 |
Other | Code - 1928 |
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त्रिपिण्डी श्राद्ध पद्धति (Tripindi Shraddh Paddhati) अपनी वंशपरम्परामें होनेवाले अनेक प्रकारके दैहिक दैविक तथा भौतिक तापोंके उपशमनके लिये त्रिपिण्डीश्राद्ध करनेकी शास्त्रसमर्थित लोकमान्य परम्परा है। वंशमें मृत और असद्गतिप्राप्त प्राणियोंके द्वारा अनेक प्रकारकी शारीरिक- मानसिक पीड़ाके साथ ही सन्तान-परम्पराकी वृद्धिका न होना इत्यादि अनेक ऐसे उपद्रव हैं, जिन उपद्रवोंका कारण कुछ विदित नहीं होता और आश्चर्यजनकरूपसे घटित होनेवाले जिन उपद्रवोंकी व्यथाको विवश होकर सहना पड़ता है। ये उपर्युक्त प्रेत या पितृबाधाएँ अपने कुलमें अथवा अन्य कुलमें उत्पन्न असद्गतिप्राप्त प्रेतोंद्वारा की गयी होती हैं।
यहाँ यह समझना चाहिये कि न केवल अपने कुलके असद्गतिप्राप्त प्राणी भूत-प्रेत-पिशाचादि योनियोंमें प्रविष्ट होकर ऐसी बाधा करते हैं, प्रत्युत अन्य जातीय वंशपरम्परामें उत्पन्न हुए जीव भी, जिनसे द्वेष-प्रीति तथा धन-धान्यादिका सम्बन्ध होता है, भूत-प्रेत-पिशाचादि योनियोंको प्राप्त करके उपर्युक्त उपद्रवोंको करते हैं तथा पीड़ाकारी होते हैं। उपर्युक्त पीड़ा पहुँचानेवाले भूत-प्रेतादि वायुरूपमें होकर सात्त्विक, राजस तथा तामस-भेदसे प्रेतके रूपमें होकर द्युलोक, अन्तरिक्ष तथा पृथ्वीलोकमें अतृप्त होकर भ्रमण करते रहते हैं। उनमें सत्त्वगुणप्रधान प्रेतादि विष्णुमय, रजोगुणप्रधान प्रेतादि ब्रह्ममय और तमोगुणप्रधान प्रेतादि रुद्रमय संज्ञावाले कहलाते हैं।
त्रिपिण्डीश्राद्धके माध्यमसे इन्हें उत्तम लोक प्राप्त करानेकी विधि है। इस श्राद्धमें सात्त्विक, राजस तथा तामस प्रेतोंके निमित्त विभिन्न द्रव्योंसे तीन पिण्ड बनाकर विशेष विधिसे श्राद्ध किया जाता है, इसलिये यह श्राद्ध त्रिपिण्डीश्राद्ध कहलाता है। श्राद्धके माध्यमसे उत्तम लोकको प्राप्त हो जानेके पश्चात् पूर्वोक्त भूत-प्रेतादि इष्टप्रतिबन्धक न होकर कर्ताको सर्वाभीष्ट प्राप्त करानेमें सहायक होते हैं। ऐसे प्राणी, जो आत्महत्या आदि दुर्मरणसे शरीरका त्याग करते हैं अथवा जिनका शास्त्रोक्त विधिसे और्ध्वदैहिक संस्कार नहीं किया जाता, वे सब भूत-प्रेतादि योनियोंको प्राप्त होते हैं।
नारायणबलि तथा त्रिपिण्डीश्राद्धका उद्देश्य-भेद – जिन जीवोंका दुर्मरण हो जाता है, उनके और्ध्वदैहिकश्राद्धकी सफलताके लिये प्रायश्चित्तरूपमें शास्त्रोंमें नारायणबलि करनेका विधान है। अपने कुलमें अथवा अपनेसे सम्बद्ध किसी अन्य कुलमें उत्पन्न किसी जीवके प्रेतयोनि प्राप्त होनेपर उसके द्वारा अपने वंशमें सन्तानप्राप्तिमें बाधा अथवा अन्य प्रकारके होनेवाले अनिष्टोंकी निवृत्तिके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध त्रिपिण्डीश्राद्ध कहलाता है। नारायणबलिमें अपने कुल-गोत्रके दुर्मरणग्रस्त जीवका उद्धार हो जाय – यह उद्देश्य होता है, जबकि त्रिपिण्डीश्राद्धमें अपनी वंश-परम्परामें होनेवाले अनिष्टोंकी निवृत्तिके उद्देश्यसे श्राद्ध किया जाता है। नारायणबलि मुख्यरूपसे देवतोद्देश्यक श्राद्ध होता है, जिसमें केवल एक प्रेतका ही श्राद्ध किया जाता है, जबकि त्रिपिण्डीश्राद्धमें सात्त्विक-राजस-तामस प्रेतोंके उद्देश्यसे भी श्राद्ध होता है।
त्रिपिण्डीश्राद्धके लिये प्रशस्त स्थान – त्रिपिण्डीश्राद्धको करनेके लिये काशीमें पिशाचमोचनतीर्थ, गयामें प्रेतशिलातीर्थ तथा अन्यान्य तीर्थस्थल उपयुक्त होते हैं। इसके अतिरिक्त किसी भी पुण्यसलिला नदी अथवा सरोवरके तटपर इसे सम्पन्न किया जा सकता है। यदि ये स्थान सुलभ न हों तो शिवालयके समीपमें, तुलसीवृक्ष अथवा अश्वत्थवृक्षकी सन्निधिमें भी किया जा सकता है।
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