Tripura Rahasya Ka Tantra Vishleshan (त्रिपुरारहस्य का तंत्रविश्लेषण)
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Author | Dr. Arvind U Basawada |
Publisher | Chaukhambha Krishnadas Academy |
Language | Hindi |
Edition | 2nd edition, 2005 |
ISBN | - |
Pages | 110 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0048 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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त्रिपुरारहस्य का तंत्रविश्लेषण (Tripura Rahasya Ka Tantra Vishleshan) हिन्दूदर्शन का ऐतिहासिक क्रम निर्धारण करना कठिन है। हिन्दू परम्परा तथा प्रायः पूर्वीय विचारधारा में सत्य को ही सर्वोपरि महत्व दिया गया है, और इस तथ्य की ओर प्रायः उपेक्षा बर्ती गई है कि यह सत्य किस ऋषि को तथा किस काल में उद्घाटित हुआ। ऋषि अनुभव को हो शाश्वत सत्य माना गया है, अतः भारतीय विद्वान के लिये हिन्दू विचार परम्परा का काल-क्रम निर्धारण करना कठिन समझा गया है।
शाक्तसंप्रदाय में कालक्रम निश्चयन और भी अधिक कठिन है, क्योंकि इस संप्रदाय में ज्ञान को गोपनीय रखे जाने का आग्रह पाया जाता है, तथा जनसाधारण को इस ओर प्रायः विमुख रखे जाने का प्रयास किया गया है। अतः इस दिशा में बहुत कम अनुसन्धान कार्य हो सका है तथा बहुत अल्प साहित्य प्रकाश में आ रहा है। फिर भी अनेक उल्लेखों से यह प्रगट होता है कि शाक्त ग्राहित्य अत्यन्त विस्तृत है, तथा इस साहित्य को वैदिक साहित्य के समकक्ष महत्व दिया गया है। शाक्त साहित्य भो वैदिक साहित्य की तरह संहिता, उपनिषद् तथा सूत्र रूप में उपलब्ध है।
“त्रिपुरा रहस्य” संहिता साहित्य है। यह ग्रन्थ प्रथम गुरु भगवान दत्तात्रेय द्वारा रचित ग्रन्थ ‘दत्ता’ अथवा ‘दक्षिण मूर्ति’ का संक्षिप्त संस्करण है। कहा जाता है कि मूल ग्रन्थ 18 000 श्लोक में लिखा गया था, जिसको श्री दत्तात्रेय के शिष्य श्री परशुराम ने 600 श्लोक में संक्षिप्त किया, कालान्तर में इसका पुनः संक्षिप्तीकरण श्री परशुराम के शिष्य श्री हरितायन द्वारा हा अध्यायों में किया गया । ‘श्री विद्या’ के उपासना खण्ड का विवेचन श्री परशुराम कृत ‘कल्पसूत्र’ में पाया जाता है, जिसको श्री विद्या का सारांश माना जाता है। यह निर्णय करना कठिन है कि इस ग्रन्थ की रचना कब हुई। इस ग्रन्थ के दो भाष्य उपलब्ध हैं जिनका रचनाकाल अर्वाचीन है। प्रथम भाष्य श्री भाष्कर के शिष्य श्री उमानन्द नाथ कृत “नित्योत्सव” टीका है जिसका रचनाकाल संवत् 1775 है। द्वितीय भाष्य श्री उमानन्दनाथ के शिष्य श्री रामेश्वर की रचना है, जिसका रचनाकाल संवत् 1831 कहा जाता है। इसके अलावा इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में कोई अन्य जानकारी उपलब्ध नहीं है।
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