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Vichar Chandrodaya (विचार चंद्रोदय)

250.00

Author Sri Pitambara Ji
Publisher Khemraj Sri Krishna Das Prakashan, Bombay
Language Sanskrit
Edition 2023
ISBN -
Pages 444
Cover Paper Back
Size 9 x 2 x 12 (l x w x h)
Weight
Item Code KH0054
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Description

विचार चंद्रोदय (Vichar Chandrodaya) यह ग्रन्थ वेदांतविद्याकी प्रथमपोयीरूप हो नैतें मुमुक्षुजनोंकूं अत्यंत उपयोगी भया है। तातै यह सप्तमावृत्ति सहित इस ग्रंथकी आजपर्यंत अनुमान १५००० प्रति छापी गई है। इस ग्रंथके कर्त्ता ब्रह्मश्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्रीपीतांबरजी महाराजका पूर्वावस्थाका फोटोग्राफ पूर्वआवृत्तियोंमें रखा है औ इस आवृत्तिमें तिनोंका उत्तरावस्थाका फोटोग्राफ तिनोंके जीवन चरित्रके आरंभमैं रक्खा है।। और यह आवृत्तिविषै श्रीश्रुति पलिंगसंग्रह नामके लघुग्रंथकूं प्रविष्ट करिके षष्टावृत्तितें नवीनता करी है। तातें इस आवृत्तिमै ८५ पृष्ठकी अधिकता भई है।।

श्रीश्रुतिषलिंगसंग्रह। हमारे परमपूज्य गुरु पंडित श्रीपीतांबरजी महाराजनै श्रीवृहदारण्यक- उपनिषद् छाप्या है। तिसपरसँ लिया है। तथापि हमनै मुद्रणशैलिविषै भिन्नप्रकारकी रचना करीके प्रत्येकस्थलमें ६ लिगोंकूं प्रत्यक्ष दृश्यमान किये हैं। तातै मुमुक्षुजनोंकूं अभ्यासविषै अत्यंत सुलभता होवेगी॥ यह श्रीश्रुतिष‌लगसंग्रह इस ग्रंथविषै मुद्रांकित करनमें ऐसा हेतु रखा है किः – आजकल वेदांतविद्याविषं मुमुक्षुजनों की प्रवृत्ति अधिकाधिक होती जाती है तातें श्री विचार चंद्रोदय के अभ्यास किये पीछे। वेदांतके मूल-रूप कितनेक उपनिषद् है। ताके तात्पर्थसे ज्ञात होना आवश्यक है।। वे उपनिषदोंके ऊपर रामा किये है। नुजआदिक द्वैतवादिओंने जे भाष्य तिनमें “वेदका अभिप्राय द्वतविर्षहीं है प्रतिपादन करनेका परिधम किया है। परिश्रम निष्फलहीं हैं। कारण ऐसे परंतु वे कि जगत्त्रिषं द्वैत तो विचारसं विना सिद्धहीं पड़ा है। यातें ऐसे विषयकूं सिद्ध करनैविर्ष वेदका अभिप्राय संभवित नहीं है।। “एक परमात्मतत्वविना अन्य जो कछु प्रतीत होवै है। सो सर्व मायाकृत भ्रांतिकरिहीं प्रतीत होवै हैं।” ऐसे प्रतिपादन करनका वेदका अभिप्राय जगद्गुरु चार्यनै उपनिषदोंके भाष्यसे सिद्ध श्रीमच्छंकरा-किया है ।। कोइबी ग्रंथके तात्पर्य शोधनअर्थ ताके ष‌लंगनकूं अवलोकन किये प्रत्येक उपनिषद्‌के ६ चाहिये।। इस कारण तें लिंग श्रीश्रुतिष‌लिंगसंग्रहविर्ष दिखाये हैं। यह लिगोंका श्रवण कोई महात्माके मुखद्वाराहीं करना उचित है। काहे त कि तैसें करनेतें वेदांतविद्याकी महात्ताका भान होवेंगा औ तदनंतर वे उपनिषदोंका सहित अभ्यास होवैगी ।।

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