Vritti Prabhakar (वृत्तिप्रभाकर)
₹500.00
Author | Sri Nishchhal Das |
Publisher | Khemraj Sri Krishna Das Prakashan, Bombay |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2021 |
ISBN | - |
Pages | 446 |
Cover | Hard Cover |
Size | 17 x 2 x 24 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | KH0056 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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वृत्तिप्रभाकर (Vritti Prabhakar)
दोहा – तावत गर्जत शास्त्र सब, जम्बुक इव वनमाहिं। महाशक्ति वेदान्त हरि, यावत नादत नाहिं॥
जबतक पुरुषको ब्रह्मात्माका अपरोक्ष ज्ञान उत्पन्न नहीं होता तबतक पुरुष जन्म मरण संसारसे निवृत्त नहीं होता। वह अपरोक्ष ज्ञान भी मुमुक्षुजनको वेदान्तशास्त्रके श्रवण मनन निदिध्यासनसे होवै है. इसवास्ते पुरुषको साधनचतुष्टयसंपन्न होकर वेदान्तशास्त्रका श्रवण अवश्य करना चाहिये. वेदान्तशास्त्रके संस्कृतमें अनेक ग्रन्थ हैं, जैसे शारीरकभाष्य, उपनिषद्भाष्य, गीताभाष्य इत्यादि. परंतु वे संस्कृतमें हैं. व्याकरण न्यायशास्त्रादिकों के अध्ययन विना वे समझमें नहीं आते। जिन मुमुक्षुओंका संस्कृतमें मवेश नहीं उनके वास्ते साधु निश्चलदासजीने उन वेदान्तके संस्कृत ग्रन्थोंके अनुसार दो ग्रन्थ बनाये हैं एक “विचारसागर” और दूसरा यह ‘वृत्तिप्रभाकर” है।
विचारसागर बहुत सरल है मंदबुद्धिवाले मुमुक्षुभी उसको पठन करसक्ते हैं और उन मंदबुद्धिवालोंके लियेही बनाया है इसवास्ते उसमें प्रत्यक्षादि प्रमाण और अख्याति आदि विषय बहुत संक्षेपसे निरूपण किये हैं, इसवास्ते उनमें मुमुक्षुजनोंके कई संदेह रहजाते हैं। परंतु इस “वृत्तिप्रभाकर” ग्रन्थमें साधुनिश्चलदासजीने उन प्रत्यक्षादि प्रमाण तथा अख्याति आदि पदार्थोंको विस्तारसे निरूपण किया है, इसवास्ते बड़े बड़े संदेहोंको दूर करनेवाला यह ग्रन्थ है और यही ग्रन्थ ब्रह्मज्ञानद्वारा असारसंसारसे मुक्त करनेहारा है।
इसको प्रथम नारायणजी त्रिकमजीने शिला अक्षरोंमें छपवाया था इसलिये उसके अक्षर सुंदर न हुए और पाठकोंको पढ़ने पढ़ानेमें भी सुलभ न हुआ। अतएत हमने श्रीयुत पं० देवचरण अवस्थी-जीसे शुद्ध कराकर प्रकाशित किया था सो हाथोंहाथ बिकगया मुमुक्षुओंकी विशेष रुचि होनेसे अबकीबार श्रीयुत पं० नन्दलालजी शास्त्रीजीसे भलीभाँति शोधन कराय सपुष्ट कागजपर मुद्रितकर प्रसिद्ध किया है आशा है कि मुमुक्षुजन इसे सादर ग्रहण करेंगे।।
कवित्त – वृत्तिप्रभाकर ग्रंथ रच्यो है ललितपंथ, अतिशय बुध स्वामि निश्चल अनूपही। अष्टहैं प्रकाश भ्रम तमको करत नाश, अवरि सुभाव होत आनन्द स्वरू-पही ॥ सूरदास तुलसीदास केशवदास आदिभले, छंदनके रचबेमें भये कविभूषही। याहिके समान भाषा ग्रंथनमें अर्थ नाहिं, जासुके मननकरे मिटै भवकूपही ॥ १ ॥ प्रत्यक्षानुमान पुनि शब्दउपमान मान, अर्थापत्ति अरु अनुपलब्धि प्रमानही। प्रथम औ दूजे तीजे चतुरथ पंच छठे, कमहूंते इनहूंकूं मनमाहिं आनही ॥ सप्तम-प्रकाशहूमें वृत्तिको स्वरूप भन्यो, अष्टम प्रकाशमाहिं फलवृत्ति गानही। बुधजन द्वारे याको करत विचार जोई, बुद्धिहूकी मंदता करैगो सब हानही ॥ २ ॥
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