Yoga Ratna Mala (योगरत्नमाला)
₹25.00
Author | Ajay Kumar Uttam |
Publisher | Bharatiya Vidya Sansthan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1st edition, 2004 |
ISBN | 81-87415-47-9 |
Pages | 66 |
Cover | Paper Back |
Size | 12 x 2 x 19 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | BVS0111 |
Other | Old and Rare Book |
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योगरत्नमाला (Yoga Ratna Mala) योगरत्नमाला आयुर्वेदतन्त्र का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के अन्य नाम आश्चर्ययोगमाला, आश्चर्ययोगरत्नमाला, योगरत्नमाला, योगमाला, महाकौतुक तथा कौतुकतन्त्र हैं। सन् १९१४ ई० में यह ग्रन्थ आश्चर्ययोगमाला तन्त्र के नाम से श्री वेंकटेश्वर प्रेस से हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हुआ था।
इस ग्रन्थ के रचनाकार नागार्जुन हैं; जिन्होंने २१८ ईसवी के लगभग श्रीशैल पर्वत पर अपना मठ बनाया था। नागार्जुन सातवाहन शासकों के अश्रित थे। उन्होंने इस विद्या पर एक अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण पारदेय लिखा था, जिसका वर्णन हेनसांग ने अपने ग्रन्थ में किया है। सम्प्रति यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। नागार्जुन ने नागार्जुनसंहिता, रसरत्नाकर, नागार्जुनतन्त्र, रसेन्द्रमंगल, नागार्जुन-कल्प, कक्षपुटम् आदि ग्रन्थों की रचना की थी।
नागार्जुन के तीन प्रसिद्ध शिष्य थे – आर्यदेव, विरूपाद तथा कण्हपाद। आर्यदेव ने तंत्रविद्या पर २५ ग्रंथ लिखे थे। इनका तिब्बती अनुवाद प्राप्त होता है; मूल संस्कृत में यह ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है। विरूपाद ने अट्ठारह ग्रन्थों की रचना की तथा येमारि तंत्र का विस्तार से विवेचन किया। इस येमारि तंत्र के कारण ही यह अपने समय के प्रसिद्ध पुरुष माने गये। कण्हपाद चमत्कारिक पुरुष हुए। इन्होंने ७४ ग्रन्थों की रचना की। मूल में अब यह ग्रन्थ प्राप्त नहीं होते। तिब्बती भाषाओं में इन ग्रन्थों का अनुवाद उपलब्ध है। इन्होंने तन्त्र के माध्यम से स्वर्ण बनाने की क्रिया स्पष्ट की तथा स्वर्णयक्षिणी साधना का इन ग्रन्थों में प्रामाणिकता के साथ उल्लेख किया।
नागार्जुन अपने समय के बहुचर्चित एवं सिद्ध पुरुष थे। इन्होंने अपने ग्रन्थों में उस समय प्रचलित तांत्रिक क्रियाओं का प्रामाणिकता के साथ वर्णन किया है। अपने ग्रन्थों में जिन औषधियों और द्रव्यों का उल्लेख इन्होंने किया है वह अन्य ग्रन्थों की शैली से मेल नहीं खाता है। जो व्यक्ति इनके सम्प्रदाय की क्रियाओं से परिचित है वही इसका रहस्य खोलने में सक्षम है। इस ग्रन्थ का इससे पहले भी सन् १६१४ में अनुवाद हुआ था, किन्तु ग्रन्थ तथा ग्रन्धकार के विषय में अपूर्ण ज्ञान के कारण वह अनुवाद भी अधूरा है।
भिक्षु गुणाकर – इस ग्रन्थ पर जैनभिक्षु गुणाकर की संस्कृत टीका उपलब्ध है, जो इसके सम्पूर्ण रहस्यों को अनावृत करती है। मिक्षु गुणाकर जैन धर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय से सम्बन्धित थे। इन्होंने लघुविवृत्ति नामक इस ग्रन्थ की व्याख्या सन् १२३६ ई० में लिखी थी, जिसका उल्लेख उन्होंने ग्रन्थ की व्याख्या में अन्त में किया है।
ऐसा प्रतीत होता है कि जैनभिक्षु गुणाकर नागार्जुन के तान्त्रिक सम्प्रदाय से अवश्य ही सम्बन्धित थे, क्योंकि जिन क्रियाओं का नागार्जुन ने अत्यन्त ही संक्षेप में वर्णन किया है, उनका उन्होंने अपनी लघुविवृत्ति में अत्यन्त ही विस्तार के साथ स्पष्ट उल्लेख किया है। यह तभी सम्भव है, जबकि विवृत्तिकार उस सम्प्रदाय एवं उसकी क्रियाओं से परिचित हो। भिक्षु गुणाकर ने आचार्य नागार्जुन के प्रति अत्यन्त ही आदर एवं सम्मान भी प्रकट किया है-
श्रीनागार्जुनाचार्य्यचरणाप्तप्रसादात् सफलो योगो ऽयमास्ताम् ।।
ऐसा तभी सम्भव हो सकता है जबकि गुणाकर आचार्य नागार्जुन और उनके सम्प्रदाय में श्रद्धा रखते रहे हों। गुणाकर ने अपनी लघुविवृत्ति में उस समय प्रचलित औषधियों के देशी भाषा में नाम भी दिये हैं, जिससे इस ग्रन्थ की सभी गुत्थियाँ सुलझ गयी हैं। मैने अपनी पद्माक्षी हिन्दी व्याख्या में गुणाकर की लघुविवृत्ति का आश्रय लिया है। इसके लिए मैं इनके प्रति श्रद्धावनत हूँ। मैंने यही चेष्टा की है कि ग्रन्थ की भाषा सरल एवं सुबोध रहे। अन्त में में भारतीय विद्या संस्थान के व्यवस्थापक श्री कुलदीप जैन को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ, जिनके प्रयास से ही इस रूप में प्रकाशित होकर यह ग्रन्थ पाठकों के समक्ष आ सका है।
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