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Brihad Hanumad Siddhi (बृहद हनुमद सिद्धि) Code-505

320.00

Author Pandit Shivdatt Mishra
Publisher Rupesh Thakur Prasad Prakashan
Language Sanskrit & Hindi
Edition -
ISBN 505-542-2392542
Pages 376
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code RTP00003
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Description

बृहद हनुमद सिद्धि (Brihad Hanumad Siddhi) एक समय ऋष्यमूक पर्वत पर, केसरी नामक वानर-राज की सती- साध्वी अंजनी (अंजना) नाम की भार्या ने पुत्र-प्राप्ति के लिए आशुतोष भगवान् शंकर की उग्र तपस्या सात हजार वर्ष पर्यन्त की। उसकी तपस्या के फलस्वरूप भगवान् सदाशिव ने सन्तुष्ट होकर उसे वरदान माँगने के लिए कहा। वरस्वरूप में पुत्र-प्राप्ति के लिए शंकरजी से उसने कहा। इस पर भगवान् शिव ने इस प्रकार कहा- “हे अंजने ! हाथ फैलाकर मेरे ध्यान में. मग्न हो, आँख बन्दकर खड़ी रहो, तुम्हारी अंजलि में पवनदेव प्रसाद रखकर अन्तर्ध्यान हो जायेंगे, उस प्रसाद के खाने पर निश्चय ही एकादश रुद्रावताररूप परम तेजस्वी पुत्ररत्न तुम्हें प्राप्त होगा।” इस प्रकार कहकर भगवान् सदाशिव वहीं अन्तर्धान हो गये और अंजनी उसी स्थान पर किंकर्तव्यविमूढ हो खड़ी रही। इसी बीच चक्रवर्ती राजा दशरथ के यज्ञ में कैकेयी के हाथ से एक चील पिण्ड लेकर आकाशमार्ग में उड़ गयी। उस समय भयंकर आँधी-तूफान से वह पिण्ड चील के मुख से छूटकर वायु-द्वारा अंजनी की पसरी हुई अंजलि में गिरी। तत्क्षण उस पिण्ड को अंजनी ने खा लिया। जिसके फलस्वरूप नव मास व्यतीत होने पर अंजनी के गर्भ से चैत्र शुक्ल पूर्णिमा मंगलवार की मंगलमय वेला में मौजी, मेखला, कौपीन, यज्ञोपवीत एवं कानों में कुण्डल धारण किये हुए मूँगे के समान रक्तवर्ण वाले मुख एवं पूँछ युक्त वायुपुत्र अत्यन्त बुभुक्षित (भूखे) वानररूप में एकाएक प्रकट हुए।

तत्पश्चात् हनुमान्जी ने माता से कहा कि, मुझे बहुत भूख लगी है। उस समय अंजनी अपने पुत्र की क्षुधा शान्त करने के लिए फल लेने हेतु घर के कमरे में गयी। अत्यन्त बुभुक्षित रोते हुए बालक हनुमान्जी आकाश में उगते हुए रक्त वर्ण वाले सूर्य को लाल फल समझकर तत्क्षण आकाश की ओर सिंह के समान गर्जना करते हुए हाथ और पैर को फैलाकर उछल गये। उनके आकाश में उछलने के साथ ही समस्त पर्वत विचलित हुए तथा सभी दिशाएँ रक्तवर्ण की हो गयीं। अंजनीपुत्र मारुति हनुमान्जी मन के समान वेग से तत्क्षण मुख फैलाकर सूर्य के निकट पहुँच गये। उस समय दैवयोग से राहु सूर्य को ग्रस रहा था। उसी बीच हनुमान्जी ने उसे अपनी पूँछ की करारी चोट से घायल किया, जिससे वह राहु अत्यन्त भयभीत होकर मूच्छित हो गया। तत्पश्चात् उसने इन्द्र की शरण में जाकर वानर की पूँछ द्वारा मूच्छित होने का समस्त वृत्तान्त कहा। उसे सुनकर इन्द्र अत्यन्त आश्चर्यचकित होते हुए तत्क्षण अपना प्रधान अस्त्र वज्र लेकर देवताओं की समस्त सेना सहित राहु के साथ हनुमान्जी के पास आये। इधर हनुमान्जी ने हाथ में सूर्य को पकड़कर जब यह जाना कि यह फल नहीं है तब उसका परित्यागकर आकाश- मार्ग से ही अपनी माता के पास चल दिये। मार्ग के बीच राहु तथा समस्त देवताओं की सेना को अपने साथ युद्ध के लिए उद्यत देखकर हनुमान्जी की आँखें क्रोध के कारण रक्तवर्ण की हो गयीं और उन्होंने इन्द्र, देवसेना तथा राहु को उस युद्ध में परास्त किया। उसी समय देवराज इन्द्र व्याकुल होकर अपने व्रज-द्वारा वायुपुत्र महाबलशाली हनुमान्जी के हनु (दाढ़ी)- प्रदेश पर प्रहार किया। जिससे हनुमान्जी मूर्च्छित हुए और तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। तदनन्तर वायु ने अपने पुत्र को मूर्च्छित देखकर अत्यन्त क्रोधित हो देवताओं के समक्ष इस प्रकार कहा- “जिसने मेरे पुत्र हनुमान् को मारा है, ऐसे इन्द्र को तत्क्षण मैं मार डालूँगा। कारण कि समस्त चराचर के प्राण एवं पितृभूत वायुरूप से मैं ही हूँ।” इस प्रकार कहकर वायुदेव ने चराचर मात्र के श्वासोच्छ्वास (ऊपर को खिंची हुई साँस) रूप वायु को खींच लिया। उस समय ब्रह्मा, रुद्र आदि समस्त देवगण तत्क्षण पवन देव के पास आकर इस प्रकार कहने लगे- हे पवनदेव! आप समस्त चराचर को पवन रोककर क्यों नष्ट करते हैं?” इस प्रकार कहने पर वायु ने कहा- “यदि मेरा पुत्र जीवित् नहीं हुआ, तो मैं इसी समय समस्त देवताओं को नष्ट कर दूँगा।” वायु के इस वचन को सुनकर विष्णु आदि सभी देवतागणों ने उनसे कहा।

विष्णु ने कहा- “हे पवनदेव ! इस पूर्णपिण्ड से उत्पन्न आपका यह पुत्र अत्यन्त निर्भय तथा ब्रह्मा के कल्प पर्यन्त चिरंजीवी होगा।”

शिव ने कहा- “मेरे तृतीय नेत्र से उत्पन्न अग्नि सभी शत्रुगण को भस्मसात् कर देगी। परन्तु वह अग्नि भी इस बालक का कुछ अनिष्ट नहीं कर सकेगी, तथा मेरे अमोघ शूल आदि अस्त्र-शस्त्र भी इसका कुछ बिगाड़ नहीं सकेंगे।”

ब्रह्मा ने कहा- “हे मरुत्! आज से मेरे ब्रह्मास्त्र, ब्रह्मदण्ड, ब्रह्मपाश तथा अन्य शस्त्र आदि भी इसका कुछ अनिष्ट नहीं कर सकेंगे।”

इन्द्र ने कहा- “प्राणिमात्र के आधारस्वरूप पवनदेव! मैं आपके पुत्र को वरदान देता हूँ कि आज से मेरा अमोघ वज्र भी इस पर कुछ प्रभाव नहीं दिखा सकेगा और इसका शरीर निश्चय ही वज्र के समान होगा। तथा हनु (दाढ़ी) में मेरे द्वारा वज्र प्रहार के कारण ही आपके इस पुत्र का नाम ‘हनुमान्’ होगा।”

कुबेर ने कहा – “आपके इस पुत्र-द्वारा सभी असुरों का विनाश होगा।” यम ने कहा- “हे वायु ! मेरे कालदण्ड का भय आज से आपके इस पुत्र पर अपना प्रभाव नहीं दिखा सकेगा।”

वरुण ने कहा- “मेरे परममित्र पवन देव! आज से आप का यह पुत्र मेरे समान शक्तिशाली होगा तथा भयंकर से भयंकर युद्ध में भी इसे थकावट का अनुभव नहीं होगा।” उसी समय विश्वामित्रर्जी ने भी खिले हुए कमल की एक सुन्दर माला हनुमान्जी के गले में पहना दी।

इस प्रकार समस्त देवतागण हनुमान्जी को वर प्रदानकर अपने- अपने लोक में चले गये।

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