Pritam Chavi Nainan Basi (प्रीतम छवि नैनन बसी)
₹1,274.00
Author | Osho |
Publisher | Divyansh Pablication |
Language | Hindi |
Edition | 2023 |
ISBN | 978-93-93434-23-4 |
Pages | 464 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | DPB0077 |
Other | Dispatched in 3 days |
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प्रीतम छवि नैनन बसी (Pritam Chavi Nainan Basi) ध्यान का अर्थ है: भीतर रोशनी को जगा लेना। है तो अंगारा, लेकिन राख में दवा पड़ा है।
जरा राख फूंक देनी है, जरा राख झाड़ देनी है-और अंगारा प्रज्वलित हो उठेगा, रोशनी हो जाएगी। और रोशनी में मैं नहीं पाया जाता है। जिस दिन पाया कि मैं नहीं है, उसी दिन पा लिया सब। मैं का खोना ही प्रभु का पाना है। और मैं में रमे रहना ही संसार है। मैं में उलझे रहना हो भटकाव है। और मैं बड़ी तरकीबे करता है अपने को बचाने की।
झूठ स्वभावतः हर तरह के उपाय करता है। सत्य दिखाई पड़ता रहे, इसके लिए झूठ सब आयोजन करता है। झूठ बड़ा कूटनीतिज्ञ है। प्रमाण जुटाता है, आधार बनाता है। एक धोखा टूटता है तो नये धोखे निर्माण करता है। एक तरफ से दीवाल गिरने लगती है तो नई दीवाल उठाता है, कि गिरती दीवाल में टेके लगाता है। झूठ मर नहीं जाना चाहता, झूठ भी जीना चाहता है।
सत्य को चिंता नहीं होती, क्योंकि सत्य मर ही नहीं सकता। झूठ को बड़ी चिंता होती है। सत्य अपनी सुरक्षा का कोई उपाय नहीं करता, क्योंकि सत्य तो सुरक्षित है ही। आग उसे जला नहीं सकती, शस्त्र उसे छेद नहीं सकते, मृत्यु उसे मिटा नहीं सकती। सत्य तो लापरवाह है। सत्य तो अलमस्त है। न सत्य प्रमाण जुटाता है, न तर्क। झूठ प्रमाण जुटाता है, तर्क जुटाता है। जितना बड़ा झूठ हो, उतना ही बड़ा आयोजन करना होता है।
यह मैं इस संसार में सबसे बड़े झूठों में एक है। यह कैसे-कैसे आयोजन करता है। इसके आयोजन पहचानो। इसकी चालबाजियां पहचानो। यह धन इकट्ठा करेगा, क्योंकि धन न हो तो मैं के लिए सहारा नहीं होता। मैं सहारे मांगता है। मेरे पास इतना है। जितना मेरे पास है उतना मैं हूँ। मैं विस्तार मांगता है। इतनी मेरी शक्ति है, इतना मेरा पद है-उतना ही मैं हूं। मैं सीढ़ियां चढ़ता है महत्वाकांक्षा को। जितनी ऊंचाई पर खड़ा हो जाए उतना ही अकड़ जाता है, उतना ही आश्वस्त हो जाता है कि मैं हूं। मैं प्रसिद्धि मांगता है, यश मांगता है, सम्मान मांगता है। मैं अपमान से डरता है, लांछना से डरता है। मैं घबड़ाता है। जरा सी गाली, जरा सा अपमान, और तिलमिला जाता है। क्यों? क्योंकि मैं का जो गुब्बारा है, वह कोई जरा सी आलपीन भी चुभा दे तो फूट सकता है। खतरा है। गुब्बारा ही है, सिर्फ हवा ही भरी है। पानी का बबूला है, कोई छू भर दे तो नष्ट हो सकता है।है, वे तुम्हारे अहंकार को आमंत्रण दे रहे हैं कि धन में क्या रखा है। अरे धन तो क्षणभंगुर है। आज है, कल छूट जाए। हम तुम्हें ऐसा धन देते हैं कि कोई न छुड़ा सके।
तुम्हारा धन छीना जा सकता है, तुम्हारा त्याग कोई कैसे छीनेगा? त्याग ज्यादा सुरक्षित है। इसलिए त्यागी का जैसा अहंकार होता है वैसा अहंकार भोगी का नहीं होता। भोगी का बेचारे का अहंकार छोटा होता है। वह खुद ही भीतर पछताता होता है, वह खुद ही जानता है अपनी सीमाएं। त्यागी का अहंकार तो स्वर्णमंडित हो जाता है। वह तो मंदिरों पर चढ़े हुए शिखर जैसे चमकते हैं सूरज की रोशनी में, ऐसा चमकता है। त्यागियों का अहंकार तो बड़ी जोर से उदघोषणा करता है।
इसलिए तुम्हारे त्यागियों ने दुनिया में जितने संघर्ष करवाए है, जितने उपद्रव, जितने झगड़े, जितने दंगे-फसाद, उतने भोगियों ने नहीं करवाए। ये मंदिर जलते हैं, ये मस्जिदें जलती है, ये मूर्तियां टूटती हैं। ये कौन तुड़वाता है? ये तुम्हारे त्यागियों के अहंकार। ये तुम्हारे महात्माओं के अहंकार। इनको अकड़ का कोई ठिकाना नहीं है। ये मिलने ही नहीं देते मनुष्य को मनुष्य से। ये मनुष्यता को खंडित किए हुए है, क्योंकि मनुष्यता खंडित रहे तो ही संभावना है इनके सम्मान की। अगर मनुष्यता अखंड हो जाए तो बहुत मुश्किल हो जाएगी; सबसे ज्यादा मुश्किल होगी तुम्हारे त्यागियों को।
इसलिए मैं बड़ा छुई मुई होता है, हमेशा बच कर चलता है-कोई छू न दे! सब तरह के आयोजन करता है- प्रतिष्ठा के, सम्मान के। लोग जैसा कहें वैसा ही करने को राजी हो जाता है- बस सम्मान मिले, सत्कार मिले। लोग मूढ़तापूर्ण कृत्य करने को कहें तो वे भी करने को राजी हो जाता है- अगर लोग सत्कार देते हों। क्योंकि सत्कार मैं का भोजन है। सम्मान मैं का भोजन है। पद से मिले तो पद और त्याग से मिले तो त्याग।
जैसे नदी अपने को सागर में खो दे। कितनी दूर से यात्रा करके नदी आती है। पहाड़ों की ऊंचाइयों से उतरती है। न मालूम कितने पत्थरों को काट कर, मार्ग के रोड़ों को हटा कर, सागर की तलाश करती हुई, नाचती, गाती, पैरों में घुंघर बांधे, दुल्हन की भांति, अज्ञात पिया से मिलने! कहीं गहरे में प्रीतम छवि नैनन बसी। ठीक-ठीक साफ भी नहीं है शायद, कहां जा रही है, क्यों जा रही है, कोई अनजान आकर्षण-अज्ञात का, सागर का निमंत्रण सुनाई पड़ रहा है। भागी जाती है। और जब तक सागर में न मिल जाए तब तक रुकती नहीं, ठहरती नहीं। – (ओशो)
प्रीतम छवि नैनन बसी, पर छबि कहां समाय।
भरी सराय रहीम लखि, पथिक आप फिर जाय।।
पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु :-
• युवा होने की कला | • प्रार्थना की कला |
• मेरा संदेश है: ध्यान में ड्वो | • नियोजित संतानोत्पत्ति |
• धर्म और विज्ञान की भूमिकाएं | • एक नई मनुष्य-जाति की आधारशिला |
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